"परिवर्तन"
युग निर्माण की ,तूं है दस्तक़
अंत जहाँ है ,तूं परिवर्तन
सदियां बीतें ,आये सदियां
बदले चेहरे ,बदले दुनियां ,
कहीं उजड़ते कारवां के मेले
बसती है ,बस्ती कहीं
बदले ना सिंहासन के पाये
लाखों बदले सिंह वहीं ,
आशियां कई ,खण्डहर बने
हुए खण्डहर ,आशियां
गरजतीं चींखें दबतीं गईं
दबतीं चींखें ,गर्जना ,
काल-कलवित ,कुछ हुए
कुछ हुए ,पल्लवित अभी
एक जीवन किलकारियाँ करता
तोड़ता हो दम कोई ,
मेरे लिये हैं ,एक समान
महल हो या झोपड़ी
मेरा पहिया ,यूँ ही चलता
धूप हो या चाँदनी ,
अज्ञान का पुतला बना
देखता मानव वहीं
कहता ,स्थिर बिम्ब हूँ
विश्व की तक़दीर हूँ ,
आग़ की लपटों में लिपटा
ख़ुद की मैं ,तक़दीर हूँ
एक स्थाई बुलबुला
मैं अचल और धीर हूँ ,
पर समय के हाँथ लिपटा
मैं तो बस ,एक डोर हूँ
इशारों पे हूँ ,नाचता
पुतली सा मैं ,शेर हूँ। ........
"एकलव्य"
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