प्रस्तुत रचना "इरोम चानू शर्मिला"(जन्म:14 मार्च 1972)को समर्पित है जो मणिपुर की मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं, जो पूर्वोत्तर राज्यों में लागू सशस्त्र बल विशेष शक्तियां अधिनियम, १९५८ को हटाने के लिए लगभग १६ वर्षों तक (4 नवम्बर 2000 से 9 अगस्त 2016 ) भूख हड़ताल पर रहीं। धन्यवाद , "एकलव्य"
मैं हिला रहा हूँ
लाशें !
मैं जगा रहा हूँ
आसें !
उठ जा ! मुर्दे
तूँ क़ब्र
तोड़ के
मैं बना रहा हूँ
खाँचें !
मैं हिला रहा हूँ
लाशें !
मैं जगा रहा हूँ
आसें !
मुर्दे तूँ
झाँक ! क़ब्र से अपनी
जिसमें लिपटा
तूँ ,आया था
नोंच रहें हैं
वे दानव
तूँ ,जिन्हें
छोड़कर आया था
रक्त ! जो पीछे
हैं तेरे,
तूँ जिन्हें भूलकर
आया था
पात ! वो उनका
करतें हैं
तूँ ,जिन्हें
सौंपकर आया था
चैन तूँ ! क़ब्रों में
लेता है
बेचैन ! उन्हें
वे करते हैं
मैं हिला रहा हूँ
लाशें !
मैं जगा रहा हूँ
आसें !
अरे ! बेग़ैरत
उठ जा ! पलभर
को तूँ
मुर्दे ! तूँ नहीं
सुनता क्यूँ ?
हो निर्जीव ! सा
लेटा क्यूँ ?
खातें हैं,वो
तिल-तिल
हमको !
तूँ 'नींद की गोली'
खाता है !
गाते प्रेम के
गीत हैं वो ! तूँ
साँय!साँय!
चिल्लाता है
मैं हिला रहा हूँ
लाशें !
मैं जगा रहा हूँ
आसें !
तूँ सन्नाटों में
पसरा है !
वे पसरे ! चढ़कर
छाती पे
परतंत्र तूँ लेटा
क़ब्रों ! में
वो छुरा घोंपते !
थाती में
मुर्दे ! तूँ हिल जा
थोड़ा
क्रांति की आस
जगा ! थोड़ा
सो जाना !
फिर से जाकर,
उनको
शमशान ! तूँ
ला ! थोड़ा
मैं हिला रहा हूँ
लाशें !
मैं जगा रहा हूँ
आसें !
"एकलव्य"
व्यक्ति परिचय स्रोत : विकिपीडिया
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