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गुरुवार, 31 मई 2018

बाज़ारू हूँ ! कहके....


                                                   बाज़ारू हूँ ! कहके.... 



बंध के बजती पैरों में मैं 
चाहे सुबह हो शाम 
ले आती मैं,प्यार के बादल 
हो कोई खासो-आम। 

कभी नायिका के पैरों बंधकर, 

मैं महफ़िल रंगीन करूँ। 
नई-नवेली दुल्हन बनकर 
पिया का घर खुशियों से भरूँ। 

ये समाज बांटे है मुझको 

दुनिया के दो खेमों में, 
बिन ब्याही घुँघरू जो पहनूँ 
गोरे-गोरे पाँवों में। 

रात भए जो लोग हैं कहते 

स्वर्ग अप्सरा मान मुझे,
बनकर भगवन प्राण लुटाते 
रात जाती हो भोर तले। 

हो प्रकाश जो दिनकर आयें 

छँटा अँधेरा,चंद्र तले 
अब लगती मैं सुरसा डायन 
वही समाज है छींटा कंसे। 

वही कहें हैं,तू है पतिता !

जीवन का सर्वनाश करे। 
रात्रि हुए थी प्राणदायिनी !
दिन के उजाले प्राण हरे। 

अंधकार में कुछ ने लूटे 

कहकर प्रिय हो लाज मेरे 
वही प्रकाश में कहते मुझको 
पाप है तू ,दुनिया में बसे। 

जो मंदिरा अधरों से लगायें 

छन-छन सुनकर राग कहें 
अचेत-चेत जो अपने खोये 
मन में ना वैराग्य जगे। 

धर्म-अधर्म की बातें करते

बैठ धर्म की सीढ़ी पर
क्षणभर में वो भूल ही जाते 
कल बैठे थे कोठे पर। 

मेरा क्या है ! मैं तो बजती 

मंदिर से चौराहों पर 
स्वर जो निकले,कभी न बदले
मानव की इच्छाओं पर। 

स्मरण मुझे है, मैं थी दुल्हन 

बँधी थी मैं, लाल रंग लगे 
ऐश्वर्य ढका घूँघट में मेरे 
बना समाज था लाज मेरे। 

हर कोई देखा था मुझको 

भरे सम्मान के नयनों से 
खिल जातीं थीं बाँछे मेरी 
हो अभिभूत उन नेत्रों से। 

हुई थी विधवा, मैं जो पगली 

नयन वही, जो मलिन हुए। 
बनें थे पायल गम के आँसू 
बंधकर जो डोली थे चढ़े। 

कभी दीये जो घर के जलाये 

करूँ मैं रौशन महफ़िल आज। 
बनकर चली सम्मान किसी दिन 
दिन है आज,जो खोऊँ लाज़ !

शब्दों की ये अदला-बदली 

समझ सकी ना, जो मैं पगली 
दिया था रुतबा देवी कहके 
आज उतारे हैं ,बाज़ारू हूँ, 
जो कहके.............. !





                                                   "एकलव्य"
छायाचित्र : साभार गूगल 

शनिवार, 26 मई 2018

ख़त्म करो !


              
               ख़त्म करो !


हाँ सखी ! मैंने तन बेचा है। 
दिल्ली की उन सड़कों पर 
अपना कलुषित मन बेचा है। 

हाँ सखी ! मैंने तन बेचा है।....... 

गुड़-गुड़ करते इस उदरपूर्ति को,
ठिठुरन-सी सर्दी रातों में 
मिथ्या चादर-सा स्वप्न लिए 
मोटों से पानी खींचा है। 

 हाँ सखी ! मैंने तन बेचा है। 
 दिल्ली की उन सड़कों पर 
अपना कलुषित मन बेचा है।

हाँ सखी ! मैंने तन बेचा है।.......  

बिन ब्याहे श्रृंगार किया 
सारे सपनों को पार किया 
विक्राल नहीं थे ! क्षणिक स्वप्न 
बस दो जून की रोटी को,
उनको आडम्बर बेचा है। 

 हाँ सखी ! मैंने तन बेचा है। 
दिल्ली की उन सड़कों पर 
अपना कलुषित मन बेचा है। 

हाँ सखी ! मैंने तन बेचा है।....... 

राजधानी न्याय की 
नई दिल्ली !
कहते-कहते मैं रोती हूँ।  
सीवर का पानी मुँह भरके 
तन को ठंडक मैं देती हूँ। 
अन्याय की चौखट पर मैंने, 
यूँ न्याय को बिकते देखा है। 

 हाँ सखी ! मैंने तन बेचा है। 
दिल्ली की उन सड़कों पर 
अपना कलुषित मन बेचा है। 

हाँ सखी ! मैंने तन बेचा है।....... 

नारी-शक्ति के ज़ुमले दिए 
सरकारें आनी-जानी हैं।  
कल वे कुर्सी पर बैठे थे,  
आज कोई यूँ ऐंठा है। 
न्याय की लाख गुहार लिए 
मैंने परिवर्तन बेचा है। 

हाँ सखी ! मैंने तन बेचा है। 
दिल्ली की उन सड़कों पर 
अपना कलुषित मन बेचा है। 

हाँ सखी ! मैंने तन बेचा है।....... 

धर्मों की, क्या मैं बात करूँ !
उनके ईश्वर लाचार हुए, 
पर-निज के मिथ्या जांतें में 
खुद को पिसते 
बरबस ही देखा है। 

हाँ सखी ! मैंने तन बेचा है। 
दिल्ली की उन सड़कों पर 
अपना कलुषित मन बेचा है। 

हाँ सखी ! मैंने तन बेचा है।....... 

माँग रही हूँ .........
न्याय आज भी,
व्यंग भरी उन नज़रों से 
करके प्रदर्शित, प्रत्यक्ष स्वयं को 
उनको लड़ते देखा है। 

 हाँ सखी ! मैंने तन बेचा है। 
दिल्ली की उन सड़कों पर 
अपना कलुषित मन बेचा है। 

हाँ सखी ! मैंने तन बेचा है।....... 

बहुत हुईं अन्याय की बातें 
ठंडी-सी,अब न्याय की बातें 
स्वप्न सही,परन्तु,लेकिन ...... 
स्वयं को उड़ते देखा है....... !

हाँ सखी ! मैंने तन बेचा है। 
दिल्ली की उन सड़कों पर 
अपना कलुषित मन बेचा है। 

हाँ सखी ! मैंने तन बेचा है।....... 

(प्रस्तुत 'रचना 'मेरे तीन वर्ष विद्यार्थी के रूप में दिल्ली प्रवास के दौरान हुए सत्य अनुभवों पर आधारित है। )
                                             'एकलव्य'
                                                         



     छायाचित्र स्रोत : साभार गूगल 

बुधवार, 16 मई 2018

चार पाए




घर के कोने में 
बैठा-बैठा फूँक रहा हूँ,
उस अधजली सिगरेट को। 

कुछ वक़्त हो चला है,
फूँकते-फूँकते
धूम्र-अग्नि से बना 
क्षणिक मिश्रण वह। 

डगमगा रहे हैं पाए 
कुर्सी के 
बैठा हूँ जिसपर,
कारण वाज़िब है ! 

तीन टाँगों वाली,वह कुर्सी 
बैठकर सोचता हूँ मैं,
जीवन के वो हसीन पल !
फेरता हुआ पकी दाढ़ी पर 
हाथ अपने। 

उखाड़ता हूँ,रह-रहकर 
कुछ बाल पके-से 
छुपाने हेतु,
अपने उम्र की नज़ाकत !
मरते थे दुनियावाले जिसपर। 

तब बात भी कुछ और थी 
उस कुर्सी की। .... 

हिलती नहीं थी इतनी,
सिगरेट के प्रत्येक कश पर 
ज़ाहिर है !.... 

रहे होंगे 
चार पाए उसके 
जीवित !
मेरी जिंदगी की तरह..... ।  

( निराशा के भंवर में फँसा मैं ! )


'एकलव्य'