उड़ जा रे ! मन दूर कहीं
जहाँ न हों,धर्म की बेड़ियाँ
स्वास्तिक धर्म ही मानव कड़ियाँ
बना बसेरा ! रैन वहीं
उड़ जा रे ! मन दूर कहीं ...
श्वास भरे ! निर्मल समीर से
विद्वेष रहित हो,द्वेष विहीन
शुद्ध करे जो आत्मचरित्र
बस तूँ जाकर ! चैन वहीं
उड़ जा रे ! मन दूर कहीं ...
नवल ज्योति हो, नवप्रभात
आत्मप्रस्तुति,कर सनात !
प्राप्त तुझे हो सत्य ज्ञान
बुद्धरूपी ब्रह्माण्ड वहीं
उड़ जा रे ! मन दूर कहीं ...
कर स्पर्श करें जो नदियाँ
हृदय आनंदित,भाव-विभोर
नभ संगिनी धरा मिली हो
और मिलें हों क्षितिज वहीं
उड़ जा रे ! मन दूर कहीं ...
निष्पाप खग,प्राणी हों सुन्दर
स्वर जो निकले,आत्मतृप्ति हो
विस्मृत हों क्षण पीड़ा के
खोज ! दिव्य स्थान कहीं
उड़ जा रे ! मन दूर कहीं ...
( अक्षय गौरव पत्रिका में प्रकाशित )
'एकलव्य'