बदलते समाज में रिश्तों का मूल्य गिरता चला जा रहा है। बूढ़े माता-पिता बच्चों को बोझ प्रतीत होने लगे हैं और हो भी क्यूँ न ? उनके किसी काम के जो नहीं रह गए ! हास् होती सम्बन्धों में संवेदनायें ,धन्यवाद।
''एकलव्य''
बचपन था मेरा नासमझ
ले आया बद की रौशनी
एक ओर करता ग़म अंधेरा
उस ओर ख़ुश है रौशनी
पाने को एक छोटी ख़ुशी
एक दौड़ लगती है कहीं
कुचले गये अरमान सारे
इस होड़ के रौ में वहीं
चित्कारता मन भी कहे
कब ख़तम ? ये खेल भी
जारी रहा बरसों तलक
बस करो ! अब अंत भी
जीता रहा गिन के नये
हर वर्ष को यह सोचकर
बाक़ी अभी है और भी
कल का सवेरा-दोपहर
फ़िर से हूँ कसता, मैं कमर
कुछ कर दिखाऊँ ! मैं नई
उठकर खड़ा हूँ, लांगने
मिल जाए कोई दुनियां नई
तन पर पड़ीं हैं झुर्रियाँ
आँखें हैं पथराई हुईं
सामर्थ्य न मेरे पास है
क़दमों में लड़खड़ाहट भरी
आगे अँधेरा घनघोर है
पास में दीपक नहीं
एक रौशनी की दरकार आज़
असहाय जीवन में कहीं
ऑंखें खुलीं , बैठा हुआ
उस नीम की छाया तले
झूला था मैं बचपन तले
जिसकी टहनियों से लगे
पत्ते नहीं अब शेष हैं
कुछ लकड़ियाँ अवशेष हैं !
अब तमन्ना, किसकी करूँ
बच गयें अब लेश हैं
हूँ डोलता तन को झुकाये
सहारा हैं मेरी डंडियाँ
रोता हूँ बस यह सोचकर
कभी था तनकर मैं खड़ा
धुत्कारते ! मुझको वही
पाला था जिनको प्यार से
हैं रुलाते मुझको वही
जिनकों समेटा बाँह में
तिल -तिल बनाया मैंने वही
जो आशियां था प्यार का
जिसमें लगाये सपनें कई
वो शामियां बहार का
आज़ जिनके छत वही
मेरे सर पे हैं नहीं
मौसमों के मार झेलूँ
रात वो भूली नहीं !
तन पर पड़ा कम्बल वही
जिसमें नये से छेद हैं
इनकों प्यार झोंकों से इतना
रोके इनकों हैं नहीं
बूढ़े हाँथों से बनाया
मैंने एक छप्पर नई
बूढ़े मन को एक दिलाशा
सर पे है एक छत नई
रात भर हूँ काँपता
कुछ सोचकर यूँ जागता
झूठे ही सपनें देखता
पल भर यूँ , दिल को सेंकता
कल फिर होगा ,एक सवेरा नया
अपना भी होगा ,एक बसेरा नया
रौशनी चमकती आयेगी
ज़िंदगी थोड़ी शर्मायेगी
होकर खड़ा ,तनकर यहाँ
दुनियां करूँगा ! मैं जवां
आ गई है रौशनी ! अब मैं कहाँ ?
लगता है जैसे खो गया
आँखें खुलीं, पथरा गईं
हरक़त न कोई ,अब यहाँ
कुछ लोग आयें हैं मेरे
महलों वाले इस छप्पर में
लिपटा रहा मैं रात भर
अरमानों के कम्बल में
फ़िरता रहा, मैं रात भर
वीरानों से जंगल में
बाँधते हैं वो मुझे, दुधिया भरे पोशाक़ में
लादकर मुझको चले ,बस मिलाने राख़ में !
आज़ ख़ुश हूँ सोचकर
एक मिली दुनियां नई
आज़ हूँ ,कुछ ऐंठ कर
फ़िर शुरू एक नया सफ़र
कितने नासमझ ये लोग हैं
रोते दिखावे के लिए
झूठे बनाते पुल नये
रेत के हरदम कई
पल में ये बह जायेंगे
समंदर के थपेड़ों से अभी
हाँथ कुछ ना पायेंगे
ख़ाली माटी की जमीं। .... .........ख़ाली माटी की जमीं। .... ..