'क्रान्ति-भ्रमित'
चल रहे हैं पाँव मेरे, आज तो पुकार दे !
क्षण की वेदी पर स्वयं, तू अपने को बघार दे !
लुट रहीं हैं सिसकियाँ, तू वेदनारहित है क्यूँ ?
सो रहीं ख़ामोशियाँ, तू माटी-सा बना है बुत !
धर कलम तू हाथों में, क्रान्ति का नाम दे !
नींद में हैं शव बने, तू आज उनमें प्राण दे !
चल रहे हैं पाँव मेरे, आज तो पुकार दे !
क्षण की वेदी पर स्वयं, तू अपने को बघार दे !
मैं अकेला चल रहा हूँ, कोई रास्ता नहीं
धर्म क्या है, भेद क्या, उनसे वास्ता नहीं
रास्ते बहुत मिलेंगे, तेरी ठोकरों तले,
रश्मिपुंज खिल उठेंगे, इस धरा की धूल में।
चल रहे हैं पाँव मेरे, आज तो पुकार दे !
क्षण की वेदी पर स्वयं, तू अपने को बघार दे !
कोटि-कोटि के कणों से, एक राग फूटेगी
शंखनाद केशवों के, रणविजय में गूँजेगी
बन रथी का सारथी, मैं एक गीत गाऊँगा
धर्म ही अधर्म है, कि शंख मैं बजाऊँगा।
चल रहे हैं पाँव मेरे, आज तो पुकार दे !
क्षण की वेदी पर स्वयं, तू अपने को बघार दे !
आँखों में 'भगत' रहेंगे, माथों पर सिकन लिये
'प्रेमचंद' लेखनी में, हाथों में कलम लिये।
'बापूनेत्र' रो रहे हैं, इस धरा को देखकर
'प्राण' तिलमिला रहे हैं, स्वर्ग सोच-सोचकर।
सोज़े-वतन की बात तो, अब कहानी हो चली
देश की कहानियाँ, अब पुरानी हो चलीं।
सच कहूँ, हम सो रहे हैं लाशों की दुकान पर,
रक्त की कमी रगों में, बर्फ़ हैं जमे हुये।
चल रहे हैं पाँव मेरे, आज तो पुकार दे !
क्षण की वेदी पर स्वयं, तू अपने को बघार दे !
सो रहा है लोकतंत्र, लेटकर यूँ खाट पर
खा रहे हैं देश को, श्वेत बाँट-बाँटकर।
देश की इबादतों में, देशप्रेम शून्य है
शून्य से शतक बना, ये उनका ही ज़ुनून है।
ये उनका ही ज़ुनून है.....
ये उनका ही ज़ुनून है.....
'एकलव्य'