सोमवार, 25 नवंबर 2019

'क्रान्ति-भ्रमित'



'क्रान्ति-भ्रमित'  

चल रहे हैं पाँव मेरे, आज तो पुकार दे !
क्षण की वेदी पर स्वयं, तू अपने को बघार दे !  


लुट रहीं हैं सिसकियाँ, तू वेदनारहित है क्यूँ ?
सो रहीं ख़ामोशियाँ, तू माटी-सा बना है बुत !

धर कलम तू हाथों में, क्रान्ति का नाम दे !
नींद में हैं शव बने, तू आज उनमें प्राण दे !

चल रहे हैं पाँव मेरे, आज तो पुकार दे !
क्षण की वेदी पर स्वयं, तू अपने को बघार दे !  


मैं अकेला चल रहा हूँ, कोई रास्ता नहीं 
धर्म क्या है, भेद क्या, उनसे वास्ता नहीं 
रास्ते बहुत मिलेंगे, तेरी ठोकरों तले,
रश्मिपुंज खिल उठेंगे, इस धरा की धूल में। 


चल रहे हैं पाँव मेरे, आज तो पुकार दे !
क्षण की वेदी पर स्वयं, तू अपने को बघार दे !  


कोटि-कोटि के कणों से, एक राग फूटेगी 
शंखनाद केशवों के, रणविजय में गूँजेगी 
बन रथी का सारथी, मैं एक गीत गाऊँगा 
धर्म ही अधर्म है, कि शंख मैं बजाऊँगा। 


चल रहे हैं पाँव मेरे, आज तो पुकार दे !
क्षण की वेदी पर स्वयं, तू अपने को बघार दे !  


आँखों में 'भगत' रहेंगे, माथों पर सिकन लिये 
'प्रेमचंद' लेखनी में, हाथों में कलम लिये। 
'बापूनेत्र' रो रहे हैं, इस धरा को देखकर 
'प्राण' तिलमिला रहे हैं, स्वर्ग सोच-सोचकर। 


सोज़े-वतन की बात तो, अब कहानी हो चली 
देश की कहानियाँ, अब पुरानी हो चलीं। 
सच कहूँ, हम सो रहे हैं लाशों की दुकान पर, 
रक्त की कमी रगों में, बर्फ़ हैं जमे हुये। 


चल रहे हैं पाँव मेरे, आज तो पुकार दे !
क्षण की वेदी पर स्वयं, तू अपने को बघार दे !  


           
सो रहा है लोकतंत्र, लेटकर यूँ खाट पर 
खा रहे हैं देश को, श्वेत बाँट-बाँटकर। 
देश की इबादतों में, देशप्रेम शून्य है 
शून्य से शतक बना, ये उनका ही ज़ुनून है।  


  ये उनका ही ज़ुनून है..... 
  ये उनका ही ज़ुनून है..... 
   

'एकलव्य' 
    

सोमवार, 11 नवंबर 2019

भागते रास्ते.... ( गीत )






भागते रास्ते....  ( गीत )




वो जो आए थे....... जो गुज़र गये
होते हुए ..... इसी रास्ते .....

मैं पुकारता ....यों ही रह गया
दबता गया  .......    क़दमों तले ....

वो जो आए थे....... जो गुज़र गये
होते हुए  .....इसी रास्ते .....

एक चीख़-सी ....  घुलती गयी ...... सुनता नहीं है ख़ुदा मेरा
शहनाइयाँ हैं कहीं बजे .......जलसा बड़ा है, नया-नया

वो जो आए थे....... जो गुज़र गये
होते हुए  .....इसी रास्ते .....

लेटा रहा ...... इसी तख़्त पे, ज़हमत सही वे आ रहे
आँखों से गिरते अश्क वो, वे कह रहे हैं ......ख़ुदा-ख़ुदा

वो जो आए थे....... जो गुज़र गये
होते हुए ..... इसी रास्ते .....

अब चलने को तैयार हैं ......मेला लगा देखो नसीब .....
वे कह रहे........ ग़मगीन हैं, अवसाद से हूँ भरा-भरा

वो जो आए थे....... जो गुज़र गये
होते हुए  .....इसी रास्ते .....

ठोकर में रक्खा था बहुत.... कोने का मैं सामान था
अब याद ... आता हूँ उन्हें, कहते हैं मुझको ख़रा-ख़रा.....

 वो जो आए थे....... जो गुज़र गये
होते हुए  .....इसी रास्ते .....

पाले बहुत थे स्वप्न जो .... पलभर में ज़र्रे हो गये
मौसम बड़ा ही ख़राब था ..... क़िस्मत ही ऐसी थी मेरी

 वो जो आए थे....... जो गुज़र गये
होते हुए .....  इसी रास्ते .....

मैं झाँकता .....  हूँ...... कुआँ-कुआँ, भरने को ख़ाली मन मेरा
नापा तो रस्सी छोटी थी,  घिरनी पे लटका ....रह गया

 वो जो आए थे....... जो गुज़र गये
होते हुए .....  इसी रास्ते .....

कुछ रह गये  ....ज़िंदा यहाँ .....वे कह गये .....  हम चल दिये
अब रह गयीं .....वीरानियाँ। ......मौजों में, वे तो बह गये । ....     

मरघट पे होगा .....ज़श्न-सा ......दीपक बनूँगा......  मैं यहाँ........
रौशन करूँगा .......  ये जहां ...... माटी-सा ख़ुद रह जाऊँगा। ......

 वो जो आए थे....... जो गुज़र गये
होते हुए ...... इसी रास्ते .....


'एकलव्य'



गुरुवार, 7 नवंबर 2019

१९वें अखिल भारतीय सम्मान "२०१९ हिंदी साहित्य दिव्य शिक्षारत्न सम्मान"









१९वें अखिल भारतीय सम्मान  "२०१९ हिंदी साहित्य दिव्य शिक्षारत्न सम्मान



अत्यंत हर्ष के साथ आप सभी गणमान्य पाठकों एवं लेखकों को सूचित कर रहा हूँ कि मुझे, मेरी प्रथम पुस्तक ''चीख़ती आवाज़ें" हेतु सरिता लोकसेवा संस्थान' उत्तर प्रदेश द्वारा, १९वें अखिल भारतीय सम्मान  "२०१९ साहित्य दिव्य शिक्षारत्न सम्मान" एवं अंगवस्त्रम, चित्रकूट विश्वविद्यालय के आदरणीय 
कुलपति द्वारा, अन्य प्रतिष्ठित साहित्यकारों की गरिमामयी उपस्थिति में, 
अयोध्या के तुलसीदास शोध संस्थान के प्रेक्षागृह में ससम्मान प्रदान किया गया। 
मेरे अब तक के साहित्य यात्रा में आप लोगों का साथ एवं सहयोग जिसका 
परिणाम यह सम्मान है जिसके लिए मैं आप सभी को 
धन्यवाद प्रेषित करता हूँ। सादर 'एकलव्य'


   

मंगलवार, 5 नवंबर 2019

उठा-पटक



उठा-पटक  

खेल रहे थे राम-राज्य का 
गली-गली हम खेल,
आओ-आओ, मिलकर खेलें 
पकड़ नब्ज़ की रेल। 

मौसी तू तो कानी कुतिया 
खाना चाहे भेल 
मौसा डाली लटक रहे हैं,
उचक-उचक कर ठेल। 

मौसी कहती, जुगत लगा रे 
कैसे पसरे खेल !
धमा-चौकड़ी बुआ मचाती 
कहती लेखक मेल। 

मिल-जुलकर सबने जलाई 
वही धर्म की आग 
बुआ-मौसी, चाचा-चाची 
बैठे जिसके पास 
जिसे देखकर 'नागा' की भी 
चकिया रही उदास। 

दी फेंककर मारा बटुआ 
उस राही के सर,
पागल-पथिक हुआ बेचारा,
भागा अपने घर। 

खेल-खेल में लिपट-लेखनी, 
वही धर्म की आग  
धर्म-परायण बन बैठे सब 
हिन्दी रही उदास। 

छपने लगे ख़बर मूरख के 
पहना साहित्य के चोल,
गोरिल्ला ने समझ चोल की 
खोली उनकी पोल। 

इसी बात पर बूढ़ी-बिल्ली 
तमग़ा लेकर आई,
झाड़-पौंछकर उल्लू बैठा 
देने लगा दुहाई। 

मौक़ा पाकर मौसी ने 
ऐसा कोहराम मचाया 
खेत रहे 'महाप्राण' निलय के 
पितरों ने शीश नवाया। 

इंद्र-रवींद्र बचा रहे थे 
भाग-भागकर प्राण,
वेणु ने रण-शंख बजाया 
ठोक-ठोक कर ताल। 

ब्लॉग-जगत की माया में 
यह कैसी माया छायी 
सिर से पैर तलक हर कोई 
बनने लगा निमाई।

एक मुख अल्लाह है बैठा 
दूजे मुख से राम,
सत्य नाम साहित्य रह गया
हो गया काम-तमाम !     

एक धड़ा साहित्य-समाज का 
रचता कैसा खेल,
द्वितीय श्रेणी साहित्य है बैठा,
प्रथम धर्म का ठेल !


'एकलव्य'