"बस अपनी क़िस्मत समझकर "
कुछ भूलीं सी ,बातें याद हैं
वो लंबी -लंबी रातें याद हैं
ठंडी -ठंडी सांसें याद हैं
याद भुलाये न भूलें याद है ,
तन पर कपड़ा ,ना पेट में रोटी
मन के अंदर ,एक इच्छा छोटी
छोटी सी एक ,दुनिया मेरी
जिनमें लगायें ,पौध कई ,
फसलों को है कोई काटे
डाले पानी और कोई
कुछ ज़मीन मेरी थी बंजर
किया उपजाऊ ,मैंने कुछकर ,
अब ज़मीन पर हक़ हैं जमायें
एक अनजाना ,मालिक है बनकर
रातों -पहर मैं पंक्षी उड़ाऊँ
केवल रखवाला हूँ ,ये कहकर ,
बूढ़े हाथों ने पत्थर हटायें
जिस जमीन से ,मैंने रोकर
नंगे पैर था ,हल चलाया
दो बैलों की जोड़ी लेकर ,
चट्टानों को खेत बनाया
सुबह -शाम बस पत्थर तोड़कर
फसल निकली है, सतह फोड़कर
पाई -पाई रक़म जोड़कर ,
काट ले गए ,फसल हमारे
मेरे सारे ,अरमान कुचलकर
अपने हालत पे, मैं रोऊँ
बस अपनी यही ,क़िस्मत समझकर।
"एकलव्य "
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