चन्द्रपथिक-सा, ओ प्रियवर ! हौले-हौले मंडराता है .........
निशाकलश छल-छल छलके
जब बन चकोर तू गाता है।
चन्द्रपथिक-सा, ओ प्रियवर ! हौले-हौले मंडराता है .........
भोर जा रही परदेस पिया
रथ-रश्मि चढ़ तू आता है
कुएँ पर घिरनी खींच रही
तू मंद-मंद मुस्काता है।
चन्द्रपथिक-सा, ओ प्रियवर ! हौले-हौले मंडराता है .........
उड़ा रही माटी को मैं
इन गोरी-गोरी बाँहों से
माटी बनकर सम्मुख मेरे
नित-नयन को क्यूँ भरमाता है !
चन्द्रपथिक-सा, ओ प्रियवर ! हौले-हौले मंडराता है .........
माता-री मेरी बुला रही
धुँएं से चूल्हा जला रही,
वेश धरन में नटखट है
तू खाँसत-खाँसत अटकत है
बन 'प्राणवायु का मीत' मेरे, नलियों में घुलता जाता है.......
चन्द्रपथिक-सा, ओ प्रियवर ! हौले-हौले मंडराता है .........
हैं दरवज्जे कुछ 'नाद' बंधे
बन पगहे सब साथ सजे
क्षुधा लगी बारी-बारी
चींखें सब आ री ! आ री !
चूनी-भूसी नद बोर रही
पानी-पानी में घोर रही
बन भूसा लिपटा माने ना !
ओ रे ! प्रियवर, तू जाने ना
कर लाज-शरम ! सब देखत हैं
आँखें मींचूँ, स्पर्श करे,ओ जुल्मी ! तू इठलाता है।
चन्द्रपथिक-सा, ओ प्रियवर ! हौले-हौले मंडराता है .........
पगडण्डी पर चलती जाती
थोड़ी गिरती और लहराती
पीले सरसों के बौंरों से
हँसती हूँ, तनिक लजा जाती
भरसक प्रयत्न तू करता है,कदमों में मेरे आ जाए
बन राह में छोटे कंकड़-सा,कोमल-से हृदय समा जाए
दृग-भ्रमित मैं क्षणभर हो जाऊँ !
नित वैरी जाप लगाता है।
चन्द्रपथिक-सा, ओ प्रियवर ! हौले-हौले मंडराता है .........
हल्दी,चंदन का बन उबटन
देह लगाएं संग सखी
मलती भर हाथों से पांव मेरे
तू प्रीत-सा चिपका जाता है
वस्त्र ब्याह के जुगनू-सा, टिम-टिम चमके जाता है।
चन्द्रपथिक-सा, ओ प्रियवर ! हौले-हौले मंडराता है .........
साथ नहीं अब भी छोड़ा
कर काँधे से मुझको जोड़ा
उठा रहा परदेसी-सा
और डोल रहा थोड़ा-थोड़ा
मैं झांक रही डोली चढ़कर,नित परिचित-सी बाबुल के घर
मन आह्लादित भी ! बन अश्क गिरे ,चंचल स्मृतियों-सा आज बहे
नग्न पांव उठा डोली ,ओ पगला ! चलता जाता है .......
चन्द्रपथिक-सा, ओ प्रियवर ! हौले-हौले मंडराता है .........
अब सजना से ही प्रीत भई
चकिया में पिस-पिस रेत हुई
जीवन अखरी-सा दाल हुआ
कब प्रेमनगर कंगाल हुआ !
नित सास-ससुर अब डांटत हैं,मोरे सजना मोहे भांपत हैं
मैं दासी रह गई 'पर' आँगन, खूँटे में क्षण-क्षण बाँधत हैं
खूँटे में बंधा ओ रस्सी-सा ! मुझको तू बड़ा नचाता है।
चन्द्रपथिक-सा, ओ प्रियवर ! हौले-हौले मंडराता है .........
है गमन कर रहा यौवन मेरा
तू ठहरा-ठहरा देख रहा
'प्रतिलिपि' अब दौड़ें मेरी
जीवन समीप अब खेद रहा,
जर्जर हुआ बदन मेरा,काया सर्पिल-सी डोल रही
श्रीमुख से अब ना दर्द बहे ,मैं मन ही मन में बोल रही......
है कंठ सूखता,प्यास लगी
दे-दे पानी कोई ,आस लगी
तू शीतल-शीतल बैठा है,चुलबुल पानी के मटके-सा
मैं तरस रहीं हूँ बूँदों को, बौरा तू रिसता जाता है .......
चन्द्रपथिक-सा, ओ प्रियवर ! हौले-हौले मंडराता है .........
पहले सजना 'यमदेश' गए
अब बालक भी परदेस गए
मैं अधमरी खाट पड़ी पगली
चलने से मृत्यु लाख भली
कर खिसक-खिसककर उठती हूँ ,गिरती एकांत संभलती हूँ
ताने मारे वो प्रेमपथिक ,बन श्याम मेघ छिप जाता है।
चन्द्रपथिक-सा, ओ प्रियवर ! हौले-हौले मंडराता है .........
अब चार टाँग की शैय्या पर
लेटी हूँ जैसे रात धवल
दुल्हन थी कभी
अब शव बनकर !
ढकता जाता उसी पगले से, मेरी काया लाचार हुई
एक दिन था बचती फिरती थी,उस परदेसी के साथ चली......
पलभर में धूल हुआ यौवन ,कभी पल-पल जो इठलाता था
स्वर शहनाई-सा शांत हुआ, जो 'मधुकर' बगिया गाता था
नदिया में रेत विलीन हुआ ,क्षणभर में गहराई जाकर
'प्रेमपथिक' आह्लादित है,मुझको खुद में खुद से पाकर
आत्मतृप्ति की खुशियों से ,वो लहर-लहर लहराता है
चन्द्रपथिक-सा, ओ प्रियवर ! हौले-हौले मंडराता है .........
'एकलव्य' ( प्रकाशित : वर्ष: 3, अंक 46, अक्टूबर(प्रथम), 2018 साहित्यसुधा )
अखरी = पत्थर की चकरी में पिसी दाल
नाद = मवेशियों के खाने का बर्तन
पगहा = मवेशियों को बांधे जाने वाली रस्सी
छायाचित्र : साभार गूगल