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शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2018

बैरी पाती



शांत वेदना,अकलुषित मन हो,मिलकर प्रियतम रात सजल हो.........

स्वप्नचंद्रिका मिलने आई
प्रियवर तुमसे प्रीत लगाई
निशा पहर अब बीते दुख-सा
ग्रीष्म ऋतु बरसात बुलाई
स्मरण करूँ क्षण,नेत्र ही नम हो।

शांत वेदना,अकलुषित मन हो,मिलकर प्रियतम रात सजल हो.........

गए पिया परदेस कमाई
एक युग बीता,पात न आई
संशय होता भूल गए तुम
गाँव बहे ठंडी पुरवाई
तन लागे, कंटक अनुभव हो।

शांत वेदना,अकलुषित मन हो,मिलकर प्रियतम रात सजल हो.........

रोज निहारूँ डकिया बाबू
पूछूँ साहेब चिट्ठी आई
आस करूँ, वे कह दें हमसे
खाट बिछा ! मैं पानी लाई
कहते कह दूँ , पढ़ दो पाती !
प्रीत घुले मन ,तन शीतल हो

शांत वेदना,अकलुषित मन हो,मिलकर प्रियतम रात सजल हो.........

गाँव फसल अब दावन लागे 
मैं भी भर-भर भूसा लाई 
पर 'परजा' के फसल कट गए 
मेहनत मेरी 'गोरुअन' खाई 
साँझ चूल्हे मैं आग लगाऊँ, क्षुधा शांत और गुजर-बसर हो। 

शांत वेदना,अकलुषित मन हो,मिलकर प्रियतम रात सजल हो.........

बेर-बिसव चढ़ सूरज आया
दरवाजे कोहराम मचाया
लुकती-फिरती मड़ई में आई
पोंछ-पोंछ तन खूब नहाई
कहते चाचा,ओ री 'झमली' ! दौड़ी आ रे ! पाती आई
पढ़ दे बबुआ ! पाती मेरी, ठहर-ठहर मैं दौड़ी आई !
अनजाने तू कह दे मुझसे,वो आ रहे,स्वप्न सफल हो।

 शांत वेदना,अकलुषित मन हो,मिलकर प्रियतम रात सजल हो.........

अब अधीर, अब और न पगली
धीरज धर ! ओ जल की मछली !
खोलन दे ! पतिया तो मुझको
बिन पढ़के क्या कह दूँ तुझको !
भाव मैं जानूँ मुखमंडल के,युग-युग का अवसाद महल हो।

शांत वेदना,अकलुषित मन हो,मिलकर प्रियतम रात सजल हो.........

पढ़ते-पढ़ते हाथ से छूटा
'पात',पात से गिरकर टूटा
वाचन-वाचन रुध आया था
गला भाव से,आँख में फूटा
क्या कह दूँ ? ओ 'झमली' बता तू !
नाव बह रही ,पतवार गया डूब।
अब तू कहेगी मैं हूँ झूठा ,मुझ अनपढ़ को तुमने लूटा।

फिर भी कहूँगा,भूल जा उसको
'स्वर्ग' गमन में रूठ गया वो
शेष नहीं दुनिया में कोई
सात फेरों का किरिया-मंतर ,
क्षणभर में 'कुल' तोड़ गया जो
रो दे पगली ! भर-भर अंखियाँ ,तन पाषाण न बोझिल मन हो।

शांत वेदना,अकलुषित मन हो,मिलकर प्रियतम रात सजल हो.........

कैसे भूलूँ ? डकिया बाबू !
रोते-रोते रात न सोई
दिन ढलता था,बाट में उसकी
स्मरण करूँ तब भर-भर रोई।

डूबूँ या उतराऊँ सागर
फरक पड़े क्या 'ढाई'-आखर
पाती-पाती ना कोई नाता
ना बाबू ! अब तुम न आना !
चिल्लाना न ! पाती आई
गाँव-गाँव चुपके से जाना
बिन बैरी अब मड़ई सूनी ,तन जीवित मन ,मृतप्राय सकल हो।

शांत वेदना,अकलुषित मन हो,मिलकर प्रियतम रात सजल हो.........


'एकलव्य' : प्रकाशित रचना 'साहित्यसुधा' वर्ष: 3, अंक 48, नवम्बर (प्रथम) , 2018 )

 
पाती - चिठ्ठी 
गोरुअन - मवेशी 
परजा - गाँव के लोग 
कुल -ख़ानदान ( परिवार )
बाट - प्रतीक्षा 
मड़ई - घास-फूस का घर  

                                                                                                छायाचित्र : साभार गूगल 

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