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सोमवार, 30 दिसंबर 2019

वैश्या कहीं की ! ( लघुकथा )

                                         



 वैश्या कहीं की !  ( लघुकथा )


"अरि ओ पहुनिया!"
""करम जली कहीं की!"
"कहाँ मर गई ?"
"पहिले खसम खा गई!"
"अब का हम सबको खायेगी!"
"भतार सीमा पर जान गँवा बैठा, न जाने कउने देश की खातिर!"
"अउरे छोड़ गया ई बवाल हम पर!"
कहती हुई रामबटोही देवी अपनी बहुरिया पहुनिया को दरवाज़े पर बैठे-बैठे चिल्लाती है। 

"का है ?" 
"काहे सुबहे-सुबहे जीना हराम करे पड़ी हो ?"
"चूल्हा जलाती होगी बेचारी!"
"तुमसे तो कउनो काम होता नहीं!"
"अउरे जो कर रहा है, उसका भी करना मुहाल करे रहती हो!"
अपना चिलम फूँकते हुए छगन महतो अपनी अधेड़ स्त्री को दो टूक सुनाते हैं। 

"हाय-हाय!"
"ई बुढ़वा को सभई दोष हमरे ही किरिया-चरित्तर में दिखता है!"
"अपने बहुरिया की छलकती हुई जवानी में कउनो खोट नाही दिखाई देता तुमका!"
"अरे आजकल ऊ झमना लोहार के लड़िकवा दिन-रात इहे दरवज्जे पर पड़ा रहत है!"
"और तो और, ई छम्मक-छल्लो ओकरी आवाज़ सुनकर दरवज्जे पर बिना घूँघट के मडराने लगती हैं!"
"वैश्या कहीं की!"      
बकबकाती हुई रामबटोही दरवाज़े पर खड़े बैलों को चारा खिलाने लगती है। तभी अचानक एक करुणभरी चीख़ दरवाज़े से होते हुए ओसार तक पहुँचती है। छगन महतो चीख़ सुनकर अपना चिलम छोड़, दौड़े-दौड़े दरवाज़े की तरफ़ आते हैं जहाँ बैलों ने रामबटोही को ज़मीन पर पटक दिया था, और वो बदहवास छितराई पड़ी थी।

"अरे ओ पहुनिया!"
"तनिक दौड़ जल्दी!"
"देख, तुम्हरी सास को बैल ने पटक दिया!" कहते हुए छगन महतो मंद-मंद मुस्कराते हुए ओसार में जाकर अपना चिलम फूँकने लगते हैं और अपना मुँह ओसार की छत की ओर कर धुँआ निकालते हुए मानो जैसे कह रहे हों "शठे शाठ्यम समाचरेत!"


           

लेखक: ध्रुव सिंह 'एकलव्य'   

बुधवार, 25 दिसंबर 2019

''अर्जुन सागर' नवोदय सम्मान"




 ''अर्जुन सागर' नवोदय सम्मान" 



नवोदय साहित्यिक एंव सांस्कृतिक मंच, साउथ सिटी, लखनऊ ने आज 22-12-2019 को, गुलमोहर ग्रीन स्कूल, ओमैक्स सिटी, शहीद पद, रायबरेली, लखनऊ के आडीटोरियम में, आचार्य ओम नीरव की अध्यक्षता में *नवोदित* कवियों को "राम कुमार सरोज 'अर्जुन सागर' सम्मान" से कु आयुषी पाल,ध्रुव सिंह 'एकलव्य', प्रान्जुल अष्ठाना, संजीत सिंह 'यश', कु सौम्य मिश्र 'अनुश्री', अरुण कुमार वशिष्ठ, सुरेश कुमार राजवंशी, संदीप अनुरागी, श्रीमती पायल भारती, अम्बरीष मिश्र, संजय समर्थ एवंम कु श्वेता को सम्मानित किया गया। आज के समारोह के मुख्य अतिथि सरवर लखनवी, नवोदय उपाध्यक्ष कृपा शंकर श्रीवास्तव विशिष्ठ अतिथि ओम प्रकाश 'नदीम' एंव मन मोहन भाटिया'दर्द'। मंच संचालन श्री शिव मंगल सिंह 'मंगल' द्वारा किया गया। सरस्वती वंदना ....द्वारा, धन्यवाद प्रस्ताव महेश अष्ठाना 'प्रकाश' द्वारा।

सम्माननित नवोदित कु आयुषी पाल,ध्रुव सिंह 'एकलव्य', प्रान्जुल अष्ठाना, संजीत सिंह 'यश', कु सौम्य मिश्र 'अनुश्री', अरुण कुमार वशिष्ठ, सुरेश कुमार राजवंशी, संदीप अनुरागी, श्रीमती पायल भारती, अम्बरीष मिश्र, संजय समर्थ एवंम कु श्वेता,व अन्य वरिष्ठ कवि ओम नीरव, कृपा शंकर श्रीवास्तव'विश्वास, 'सरवर लखनवी, ओम प्रकाश नदीम, शिव मंगल सिंह'मंगल', प्रेम शंकर शास्त्री 'बेताब', सच्चिदानंद शास्त्री, मन मोहन भाटिया 'दर्द', डा. करुणा लता सिंह, विभा प्रकाश, महेश अष्ठाना'प्रकाश', बेअदब लखनवी, पूर्णिमा बर्मन,.श्री कांत तैलंग, निशा सिंह, सुभाष चन्दर् रसिया, सम्पत्ति कुमार मिश्र 'वैसवारी' व आदित्य सरन द्वारा विशेष कविता-पाठ किया गया। कार्यक्रम का छायांकन एंव वीडियोग्राफी आदित्य सरन द्वारा की गई।
काव्यपाठ के उपरांत संस्था के महासचिव महेश अष्ठाना 'प्रकाश' ने सभी का आभार व्यक्त किया।

''अर्जुन सागर' नवोदय सम्मान" 

मंगलवार, 17 दिसंबर 2019

नारी सशक्तिकरण! ( लघुकथा )





नारी सशक्तिकरण! ( लघुकथा )


"रामकली!
"अरी ओ रामकली!"
"पकौड़े ला रही है या बना रही है!"
"ये निठल्ली मुई, एक काम भी समय से नहीं करती है!"
कहती हुई भावना अपनी नौकरानी रामकली पर खीझती है।

"छोड़ यार!"
"इधर मन लगा!"
"देख तू फिर से हार जायेगी!"
"नहीं तो!"
"चल, अपने ताश के पत्ते संभाल!"
कहती हुई भावना की सहेली शिखा ताश के पत्तों को बड़ी ही दक्षता से एक माहिर खिलाड़ी की तरह बाँटती है।

"मेरी अगली चाल सौ की!"
कहते हुए भावना सौ रुपये का नोट टेबल पर पड़े ताश के पत्तों पर दनाक से फेंक देती है।

"क्या यार, कर दी न छोटी बात!"
"अरे, इतने बड़े अफ़सर की बीबी है और तो और नारी सशक्तिकरण मंच की अध्यक्षा भी!"
"और टेबल पर बस सौ रुपये!"
"थोड़ा बड़ा दाँव लगा!"
कहती हुई भावना की सहेली पुष्पा अपने जूड़े को अपने हाथों से समेटने लगती है।

चाय की चुस्की लेते हुए शिखा,
"अरे यार, ये बता!"
"हमारी नारी सशक्तिकरण मंच वाली पार्टी कहाँ तक पहुँची ?"
तिरछी नज़रों से देखते हुए भावना की ओर प्रश्न दागती है।

"कह तो दिया है इनसे कि मल्होत्रा जी का रॉयल पैलेस देख लें और बुक कर दें, अगले रविवार के लिये!"
गहरी साँस लेते हुए भावना उसे तसल्ली देती है।

"अरे, मंच के लिये कोई धाँसू कविता तैयार की है कि नहीं ?"
"पिछली दफा तेरी वो भूखे-नंगों वाली कविता ने तो पूरे महफ़िल में कोहराम मचा दिया था!"
"और वो रेप वाली लघुकथा, उसने तो सबकी आँखों में आँसू ही ला दिये थे!"
शिखा, भावना को दो फुट चने के झाड़ पर चढ़ाते हुए नमक़ीन के कुछ दाने अपनी मुठ्ठी में भर लेती है। तभी रामकली पकौड़ों का प्लेट लेकर रसोईं से टेबल की ओर बढ़ती है।

"अब क्या होंगे तेरे ये पकौड़े ?"
"हमारी चाय तो कब की ठंडी हो गयी!"
"तुझसे एक काम भी ठीक से नहीं होता!"
"चल जा यहाँ से!"
भावना उसे खरी-खोटी सुनाते हुए जाने के लिये कहती है। परन्तु न जाने क्या सोचकर रामकली वहीं उसी टेबल के पास कुछ देर तक बुत बनी खड़ी रहती है।

"अब क्या है?"
"प्लेट रख, और जा यहाँ से!"
"क्यों खड़ी है मेरे सर पे ?"
सर पर हाथ रखते हुए भावना उसे फटकारती है।

"मालकिन, मेरे पोते का मुंडन है आज!"
"सौ रुपये मिल जाते तो!"
संकोच करते हुए रामकली कहती है।

"पैसे क्या तेरे बाप के घर से लाऊँ!"
"अगले महीने दूँगी!"
"काम करना है तो कर!"
"नहीं तो अपना हिसाब कर, और चलती बन!"
कहती हुई भावना, ग़ुस्से से उसे घूरती है। रामकली निरुत्तर-सी कुछ देर वहीं खड़ी रहती है और फिर अपना सर झुकाये वहाँ से चली जाती है।


लेखक : ध्रुव सिंह 'एकलव्य'            
              

शुक्रवार, 13 दिसंबर 2019

वे कह गये थे अक़्स से... ( 'नवगीत' )




वे कह गये थे अक़्स से...'नवगीत' )

 वे कह गये थे अक़्स से 
परदे हटाना तुम!
मैं जा रहा हूँ, वक़्त से
नज़रे मिलाना तुम !

 वे कह गये थे अक़्स से 
परदे हटाना तुम!
ख़ाक में, हूँ मिल गया 
ज़र्रा हुआ माटी, 
मेहनतों के बीज से  
फसलें उगाना तुम !

 वे कह गये थे अक़्स से 
परदे हटाना तुम!

बह गई है शाम 
फिर अब न आयेगी, 
चिलचिलाती धूप में 
दीपक जलाना तुम!

 वे कह गये थे अक़्स से 
परदे हटाना तुम!

हो नहीं सकता ये रिश्ता 
बादलों से नेक,
कुएँ की नालियों से पेटभर 
पानी पिलाना तुम!

 वे कह गये थे अक़्स से 
परदे हटाना तुम!


दीवारें हिल नहीं सकती हैं,  
काग़ज़ के पुलिंदों से  
सितमग़र वे रहेंगे बाग़ में 
मरहम लगाना तुम!

 वे कह गये थे अक़्स से 
परदे हटाना तुम!


नृत्य करता मोर है 
कहते रहेंगे वो,
काम है उनका, 
हमेशा का यही हर-रोज़
      सर बाँधकर पैग़ाम यह,      
सबको बताना तुम!

 वे कह गये थे अक़्स से 
परदे हटाना तुम!

सरताज़ हैं, सरकार हैं 
हर ताज़ पर काबिज़,
हर रोज़ ढलती शामों की 
क़ीमत चुकाना तुम!

 वे कह गये थे अक़्स से 
परदे हटाना तुम!
बोतलों को मुँह में भर 
जो लिख रहे कविता, 
फूस की रोटी जली 
उनको खिलाना तुम!

 वे कह गये थे अक़्स से 
परदे हटाना तुम!

'जयशंकरों' की भीड़ में ग़ुम 
सत्य का साहित्य
'प्रेम' का साहित्य है
उनको बताना तुम! 

वे कह गये थे अक़्स से 
परदे हटाना तुम!
मैं जा रहा हूँ, वक़्त से
नज़रे मिलाना तुम !

'एकलव्य'

( मेरा यह 'नवगीत' कथासम्राट आदरणीय मुंशी प्रेमचंद जी को समर्पित है। )   

  

गुरुवार, 12 दिसंबर 2019

एन.आर.सी है कि बवाल ! (लघुकथा)



 एन.आर.सी है कि बवाल ! (लघुकथा) 


रामखेलावन, पैर पटकता हुआ अपने फूस की मड़ई में प्रवेश करता है और पागलों की तरह घर के कोने में पड़े जंग लगे संदूक को खोलकर जल्दी-जल्दी उसमें पड़े कपड़ों और पुराने सामानों को इधर-उधर मिट्टी के फ़र्श पर फेंकते हुए चींख़ता है,

"अरे ओ नटिया की अम्मा!"
"मर गई का!"
"कहाँ है ?"
"ज़ल्दी इधर आ!"

फूलन देवी अपनी साड़ी के पल्लू को संभालती हुई रसोईं से अपने पति रामखेलावन की ओर दौड़ती हुई,

"का हुआ ?"
"काहे आसमान फाड़ रहे हो!"
"अउर ई का!"
"ई का कर रहे हो ?"       
"भाँग-वाँग खा लिये हो का!"   
"सारा सामान ज़मीन पर काहे फेंक रहे हो ?"
"का चाहिये तोका ?"
"हमसे कहते, हम निकाल देते।"
फूलन, रामखेलावन पर चिल्लाती हुई अपनी साड़ी के पल्लू को आटे लगे हाथों से ठीक करती है,
"का हुआ ?"
"इतना काहे सुरियाये हो!"

"अरे गज़ब हो गवा!"
"ऊ ससुरा एन.आर.सी आवे वाला है!"
कहता हुआ रामखेलावन अपने कंधे पर रखे मैले गमछे से अपने माथे का पसीना पौंछता है।
"अरे आज मुखिया जी पंचायत बुलाये रहे।"
"वे कह रहे थे कि एन.आर.सी ससुर आ धमका है!"
"सबही गाँव वाले अपना-अपना पहचान-पत्र और कउनो ज़मीन के काग़ज़ तैयार रखें!"
"नाही तो गाँव से उसका हुक़्क़ा-पानी सबही बंद कर दिया जायेगा और गाँव से बाहर निकाल दिया जायेगा!"

"अरे, कइसे निकाल देंगे हमको!"
"हमरे बाप-दादा यहीं रहे हमेशा और हमें कइसे निकाल देंगे!"
"का कउनो हलुआ है का!"
"अउर सभही का यही रहेंगे ?"
कहती हुई फूलन अपना विरोध दर्ज़ कराती है।

मुखिया जी कह रहे थे कि-
"केवल ज़मींदार साहेब!"
"लाला जी!"
"अउरो ऊ पुरोहित जी!"
"ई गाँव में रहेंगे!"
कहते हुए रामखेलावन पश्चातापभरी आँखों से फूलन को देखता रहा।

"अरे, ई का!"
"काहे ऊ काहे रहेंगे ?"
"उनही के बाप-दादा खाली चमेली का तेल अपने उजड़े चमन में लगाये रहे का जो सारे गाँव में अब तक महक रहा है!"
रामखेलावन फूलन को समझाता हुआ-
"अरे नाही!"
"ई बात नहीं है!"
"असल में उनके बाप-दादा पढ़े-लिखे रहे, सो उनके पूरे ख़ानदान का नाम गाँव के पंचायत-भवन के रजिस्टर में मौज़ूद रहा!"

"हम सब ठहरे अँगूठा-टेक!"
 "अउर का!"

"तो का मतबल!"
"हमार नटिया भी गाँव में न रहेगी!"
फूलन के इस मासूम से सवाल पर रामखेलावन सजल आँखों से उसे एक टक देखता रह गया!                                   

मंगलवार, 10 दिसंबर 2019

दो लघुकथाएँ

छुटकारा ( लघुकथा )


"बोल-बोल रानी! कितना पानी ?
 नदिया सूखी, भागी नानी।" 
कहते हुए ननुआ मदारी अपने बंदर और बंदरिया को अपनी पीठ के चारों ओर घुमाता हुआ, "क़दरदान !  मेहरबान! अपनी झोली खोलकर पैसा दीजिए! भगवान के नाम पर, इन मासूम खिलाड़ी बंदर-बंदरिया की रोज़ी-रोटी के वास्ते! दीजिए! दीजिए!
साहेबान!
निग़हबान!
चलो भईया! आज का खेल यहीं ख़त्म!'' कहते हुए ननुआ मदारी अपना करामाती थैला समेटता है और घर की ओर अपने बंदर-बंदरिया को लेकर चल पड़ता है। घर के दरवाज़े पर पहुँचते ही उसको उसकी माँ की दर्दभरी खाँसी सुनायी देती है और वह जाकर उसके सिरहाने यह कहते हुए बैठ जाता है कि,

''माँ कल थोड़े पैसे और हो जायें तो तुझे अच्छे डॉक्टर को दिखाऊँगा।"  
इधर ननुआ की बंदरिया भी कुछ दिनों से बीमार चल रही थी जिसके सर को उसका बंदर अपनी गोद में रखकर सहला रहा था और ननुआ की अपनी माँ से वार्तालाप भी बड़े ध्यान से सुन रहा था। दूसरे दिन ननुआ यह जानते हुए कि उसकी बंदरिया बहुत बीमार है, दोनों को लेकर खेल दिखाने निकल गया। 
साहेबान!
क़दरदान! 
अब देखिये, मेरा बंदर अपनी बंदरिया को गोली से उड़ा देगा !
''ठाँय-ठाँय !"
बंदरिया ज़मीन पर गिर पड़ी। बंदर ने उसे कफ़न ओढ़ाया । साहेबान!
क़दरदान!
"अब देखिए हमारा बंदर अपनी बंदरिया को कैसे जीवित करता है।''

ननुआ का बंदर अपनी बंदरिया को उठाने के लिये झिंझोड़ने लगा। बंदरिया दोबारा नहीं उठी। संभवतः उसे अपने रोज़-रोज़ के झूठ-मूठ के मरने से सच में छुटकारा मिल चुका था। बंदर वहीं अपनी बंदरिया की लाश के पास बैठा-बैठा आसमान की ओर निःशब्द, निर्निमेष देख रहा था मानो वह अपनी बंदरिया की आत्मा को महसूसकर  मन ही मन कह रहा हो-
"चलो अच्छा हुआ, तुझे कम से कम इस नरक से छुटकारा तो मिला!''



ठेठ पाती ( लघुकथा ) 

"सुनो!
सुनो!
सुनो!"

''सभी गाँव वालों ध्यान से सुनो!"
"विधायक जी ने गाँव की महिलाओं और लड़कियों हेतु एक 'चिट्ठी लिखो प्रतियोगिता' का आयोजन किया है।" "जीतने वाली प्रतिभागी को हमारे विधायक जी स्वयं पंद्रह अगस्त को एक हज़ार रुपये की पुरस्कार राशि से पुरस्कृत करेंगे।"
"सुनो!
सुनो!
सुनो!"
कहते हुए नेताजी का संदेशवाहक अपनी टुटपुँजिया साइकिल अपने बलपूर्वक खींचता हुआ गाँव के बाहर निकल गया। 
"अरे ओ परवतिया!"
"सुनती है!"
"देख गाँव में कउनो खेला होने वाला है।"
"तुम भी काहे नहीं चली जाती!"
कहते हुए परवतिया के ससुर अपना ख़ानदानी हुक़्क़ा गुड़गुड़ाने लगते हैं। 
"ठीक है!"
"सुन लिया!"
"मैं कल पंचायत-भवन में चली जाऊँगी अपना बोरिया-बिस्तर लेकर।"
कहती हुई परवतिया बैलों की नाद में भूसा डालने लगती है। 
दूसरी सुबह परवतिया गाँव के पंचायत-भवन पहुँचती है जहाँ और बाक़ी महिलाएँ आयोजनकर्मियों द्वारा दिये गये काग़ज़ पर कुछ लिखने में व्यस्त थीं। परवतिया कुछ समझ पाती उसके पहले ही एक कर्मी ने उसके हाथों में एक सादा काग़ज़ और क़लम पकड़ाते हुए दूसरे कोने में बैठ जाने का इशारा करता है और कहता है कि-
''देश के विकास के नाम एक पाती लिखो!"
परवतिया कुछ सोचती हुई पंचायत-भवन के एक कोने में जा बैठती है और अपनी टूटी-फूटी भाषा में कुछ लिखने लगती है। 
"पणाम! हम कहे रहे, इहाँ सबहि ठीक बा" 
हऊ केदार राम के गदेलवा विकशवा, मुआं 
कबही से बेमार रहा। कलिया बता रही थी कि, ऊ मुआं झोलाछाप वैद्यवा के कारन विकशवा का तबियत ढेर ख़राब हो गवा रहा!"
"तबही नये वैद के यहाँ ओकरी माई ले गयी रहिन!"
"आज भोरहरी ओकर मृत्यु हो गयी रही!''
"सुनने में आ रहा था कि ई नया वैद दवाई का तनिक बेसी ख़ुराक़ दे दिआ रहा!"
"बाक़ी सबहि कुशल मंगल! हमरी बकरिया छबीली, कलही से पानी नाही गटक रही है!
"बाक़ी खबर आने पर पता लगेगा!"

"तुम्हरे चरनों की धूल!"
परवतिया 

ध्रुव सिंह 'एकलव्य'  


सोमवार, 25 नवंबर 2019

'क्रान्ति-भ्रमित'



'क्रान्ति-भ्रमित'  

चल रहे हैं पाँव मेरे, आज तो पुकार दे !
क्षण की वेदी पर स्वयं, तू अपने को बघार दे !  


लुट रहीं हैं सिसकियाँ, तू वेदनारहित है क्यूँ ?
सो रहीं ख़ामोशियाँ, तू माटी-सा बना है बुत !

धर कलम तू हाथों में, क्रान्ति का नाम दे !
नींद में हैं शव बने, तू आज उनमें प्राण दे !

चल रहे हैं पाँव मेरे, आज तो पुकार दे !
क्षण की वेदी पर स्वयं, तू अपने को बघार दे !  


मैं अकेला चल रहा हूँ, कोई रास्ता नहीं 
धर्म क्या है, भेद क्या, उनसे वास्ता नहीं 
रास्ते बहुत मिलेंगे, तेरी ठोकरों तले,
रश्मिपुंज खिल उठेंगे, इस धरा की धूल में। 


चल रहे हैं पाँव मेरे, आज तो पुकार दे !
क्षण की वेदी पर स्वयं, तू अपने को बघार दे !  


कोटि-कोटि के कणों से, एक राग फूटेगी 
शंखनाद केशवों के, रणविजय में गूँजेगी 
बन रथी का सारथी, मैं एक गीत गाऊँगा 
धर्म ही अधर्म है, कि शंख मैं बजाऊँगा। 


चल रहे हैं पाँव मेरे, आज तो पुकार दे !
क्षण की वेदी पर स्वयं, तू अपने को बघार दे !  


आँखों में 'भगत' रहेंगे, माथों पर सिकन लिये 
'प्रेमचंद' लेखनी में, हाथों में कलम लिये। 
'बापूनेत्र' रो रहे हैं, इस धरा को देखकर 
'प्राण' तिलमिला रहे हैं, स्वर्ग सोच-सोचकर। 


सोज़े-वतन की बात तो, अब कहानी हो चली 
देश की कहानियाँ, अब पुरानी हो चलीं। 
सच कहूँ, हम सो रहे हैं लाशों की दुकान पर, 
रक्त की कमी रगों में, बर्फ़ हैं जमे हुये। 


चल रहे हैं पाँव मेरे, आज तो पुकार दे !
क्षण की वेदी पर स्वयं, तू अपने को बघार दे !  


           
सो रहा है लोकतंत्र, लेटकर यूँ खाट पर 
खा रहे हैं देश को, श्वेत बाँट-बाँटकर। 
देश की इबादतों में, देशप्रेम शून्य है 
शून्य से शतक बना, ये उनका ही ज़ुनून है।  


  ये उनका ही ज़ुनून है..... 
  ये उनका ही ज़ुनून है..... 
   

'एकलव्य' 
    

सोमवार, 11 नवंबर 2019

भागते रास्ते.... ( गीत )






भागते रास्ते....  ( गीत )




वो जो आए थे....... जो गुज़र गये
होते हुए ..... इसी रास्ते .....

मैं पुकारता ....यों ही रह गया
दबता गया  .......    क़दमों तले ....

वो जो आए थे....... जो गुज़र गये
होते हुए  .....इसी रास्ते .....

एक चीख़-सी ....  घुलती गयी ...... सुनता नहीं है ख़ुदा मेरा
शहनाइयाँ हैं कहीं बजे .......जलसा बड़ा है, नया-नया

वो जो आए थे....... जो गुज़र गये
होते हुए  .....इसी रास्ते .....

लेटा रहा ...... इसी तख़्त पे, ज़हमत सही वे आ रहे
आँखों से गिरते अश्क वो, वे कह रहे हैं ......ख़ुदा-ख़ुदा

वो जो आए थे....... जो गुज़र गये
होते हुए ..... इसी रास्ते .....

अब चलने को तैयार हैं ......मेला लगा देखो नसीब .....
वे कह रहे........ ग़मगीन हैं, अवसाद से हूँ भरा-भरा

वो जो आए थे....... जो गुज़र गये
होते हुए  .....इसी रास्ते .....

ठोकर में रक्खा था बहुत.... कोने का मैं सामान था
अब याद ... आता हूँ उन्हें, कहते हैं मुझको ख़रा-ख़रा.....

 वो जो आए थे....... जो गुज़र गये
होते हुए  .....इसी रास्ते .....

पाले बहुत थे स्वप्न जो .... पलभर में ज़र्रे हो गये
मौसम बड़ा ही ख़राब था ..... क़िस्मत ही ऐसी थी मेरी

 वो जो आए थे....... जो गुज़र गये
होते हुए .....  इसी रास्ते .....

मैं झाँकता .....  हूँ...... कुआँ-कुआँ, भरने को ख़ाली मन मेरा
नापा तो रस्सी छोटी थी,  घिरनी पे लटका ....रह गया

 वो जो आए थे....... जो गुज़र गये
होते हुए .....  इसी रास्ते .....

कुछ रह गये  ....ज़िंदा यहाँ .....वे कह गये .....  हम चल दिये
अब रह गयीं .....वीरानियाँ। ......मौजों में, वे तो बह गये । ....     

मरघट पे होगा .....ज़श्न-सा ......दीपक बनूँगा......  मैं यहाँ........
रौशन करूँगा .......  ये जहां ...... माटी-सा ख़ुद रह जाऊँगा। ......

 वो जो आए थे....... जो गुज़र गये
होते हुए ...... इसी रास्ते .....


'एकलव्य'



गुरुवार, 7 नवंबर 2019

१९वें अखिल भारतीय सम्मान "२०१९ हिंदी साहित्य दिव्य शिक्षारत्न सम्मान"









१९वें अखिल भारतीय सम्मान  "२०१९ हिंदी साहित्य दिव्य शिक्षारत्न सम्मान



अत्यंत हर्ष के साथ आप सभी गणमान्य पाठकों एवं लेखकों को सूचित कर रहा हूँ कि मुझे, मेरी प्रथम पुस्तक ''चीख़ती आवाज़ें" हेतु सरिता लोकसेवा संस्थान' उत्तर प्रदेश द्वारा, १९वें अखिल भारतीय सम्मान  "२०१९ साहित्य दिव्य शिक्षारत्न सम्मान" एवं अंगवस्त्रम, चित्रकूट विश्वविद्यालय के आदरणीय 
कुलपति द्वारा, अन्य प्रतिष्ठित साहित्यकारों की गरिमामयी उपस्थिति में, 
अयोध्या के तुलसीदास शोध संस्थान के प्रेक्षागृह में ससम्मान प्रदान किया गया। 
मेरे अब तक के साहित्य यात्रा में आप लोगों का साथ एवं सहयोग जिसका 
परिणाम यह सम्मान है जिसके लिए मैं आप सभी को 
धन्यवाद प्रेषित करता हूँ। सादर 'एकलव्य'


   

मंगलवार, 5 नवंबर 2019

उठा-पटक



उठा-पटक  

खेल रहे थे राम-राज्य का 
गली-गली हम खेल,
आओ-आओ, मिलकर खेलें 
पकड़ नब्ज़ की रेल। 

मौसी तू तो कानी कुतिया 
खाना चाहे भेल 
मौसा डाली लटक रहे हैं,
उचक-उचक कर ठेल। 

मौसी कहती, जुगत लगा रे 
कैसे पसरे खेल !
धमा-चौकड़ी बुआ मचाती 
कहती लेखक मेल। 

मिल-जुलकर सबने जलाई 
वही धर्म की आग 
बुआ-मौसी, चाचा-चाची 
बैठे जिसके पास 
जिसे देखकर 'नागा' की भी 
चकिया रही उदास। 

दी फेंककर मारा बटुआ 
उस राही के सर,
पागल-पथिक हुआ बेचारा,
भागा अपने घर। 

खेल-खेल में लिपट-लेखनी, 
वही धर्म की आग  
धर्म-परायण बन बैठे सब 
हिन्दी रही उदास। 

छपने लगे ख़बर मूरख के 
पहना साहित्य के चोल,
गोरिल्ला ने समझ चोल की 
खोली उनकी पोल। 

इसी बात पर बूढ़ी-बिल्ली 
तमग़ा लेकर आई,
झाड़-पौंछकर उल्लू बैठा 
देने लगा दुहाई। 

मौक़ा पाकर मौसी ने 
ऐसा कोहराम मचाया 
खेत रहे 'महाप्राण' निलय के 
पितरों ने शीश नवाया। 

इंद्र-रवींद्र बचा रहे थे 
भाग-भागकर प्राण,
वेणु ने रण-शंख बजाया 
ठोक-ठोक कर ताल। 

ब्लॉग-जगत की माया में 
यह कैसी माया छायी 
सिर से पैर तलक हर कोई 
बनने लगा निमाई।

एक मुख अल्लाह है बैठा 
दूजे मुख से राम,
सत्य नाम साहित्य रह गया
हो गया काम-तमाम !     

एक धड़ा साहित्य-समाज का 
रचता कैसा खेल,
द्वितीय श्रेणी साहित्य है बैठा,
प्रथम धर्म का ठेल !


'एकलव्य'   
                       

  

सोमवार, 23 सितंबर 2019

धारावाहिक.... ( उपन्यास ) खण्ड -१

धारावाहिक...........( उपन्यास ) खण्ड -१
अपने सम्मानित पाठकों के लम्बे इंतज़ार और माँग को देखते हुए, मैं अपने नये उपन्यास "धारावाहिक" को कई चरणों में आप सभी के समक्ष प्रस्तुत करने जा रहा हूँ। पाठकों की रुचि के आधार पर मैं इसे थोबड़े की क़िताब पर निरंतर अंतराल पर आगे बढ़ाता रहूँगा। सादर 'एकलव्य'






१. ड्रामा शुरु .... 


                            अरे ओ फुलझड़िया ! कहाँ मर गई ? ज़ल्दी आ ! धारावाहिक शुरु होने वाला है। अपनी इकलौती बहुरिया को चिल्लाती हुई जमनाबाई ! अरे किशनवा  को भी ज़रा आवाज़ लगा दे न जाने मुआ कब से पखाने में कीर्तन कर रहा है ! 
आई माँ जी ,फुलझड़िया जमनाबाई को आश्वस्त करती हुई दाल में लालमिर्च और लहसुन जीरे का तड़का लगाती है जिसकी ज़हरीली महक़ से घर का गेट खोल रहे वक़ील साहब अपने पैंसठ की उम्र पार करने का संदेश मुहल्ले वालों को देने लगते हैं ! " का ससुर ई रोज़-रोज़ इतना मिरच खाने में ई सबहन तो हमरी जान लेके ही मानेंगे। कहते हुए घर के गेट को कुंडी लगाते हैं जहाँ उनका कुत्ता झुमरु उन्हें देखते ही पूँछ हिलाकर चार कलैया मारता है और जाकर वक़ील साहब के क़दमों में साष्टांग लेटने लगता है। 

                            क्यूँ जी ! आज कचहरी से बड़ा ज़ल्दी आ गए।  दिनभर खलिहर बैठे रहे का ? जमनाबाई वक़ील साहब पुरुषोत्तम महतो पर थोड़ा व्यंग्य कसती है। क्यूँ नहीं ! सारा कचहरी का काम-धाम तुम्ही तो निबटाती हो ! हम तो केवल वहाँ माखी मारने जाते हैं ! पुरुषोत्तम महतो जमनाबाई को प्रतिउत्तर देते हैं। जवाब भारी पड़ता देख जमनाबाई फट से बात पलटी है। चलो अच्छा ही हुआ ज़ल्दी आ गए ! कचहरी में बेक़ार की मक्खियाँ उड़ाने से अच्छा; कुछ काम की चीज देख लोगे ! कहती हुई जमनाबाई अपनी निग़ाहें टीवी स्क्रीन की तरफ़ जमा लेती है। 

                           उधर फुलझड़ी भी ज़ल्दी-ज़ल्दी दाल में तड़का लगाकर टीवी वाले मेहमानख़ाने में आ धमकती है। अरे माँ जी ! धारावाहिक शुरु हो गया क्या ? जबकि मैं तो अभी आ ही रही थी ! नहीं तो ! फुलझड़ी अपनी नाराज़गी ज़ाहिर करते हुए जमनाबाई को घूरकर देखती है ! 
हाँ... ! हाँ... ! टीवी वाले तो तेरे बाप के तामीरदार जो ठहरे कि तू डेढ़ घंटा सजेगी-सँवरेगी और वे तेरे  इंतज़ार में बैठकर टीवी पर प्याज़ छीलेंगे ! क्यूँ ! जमनाबाई फुलझड़ी को तंज़ कसती हुई। 


                         तभी पखाने से गमछे में हाथ-मुँह पौंछता हुआ पुरुषोत्तम महतो का बड़ा बेटा झींगुर मेहमानख़ाने में प्रवेश करता है। क्यूँ रे ! पखाने में भरतमिलाप कर रहा था क्या ? इतनी ज़ोर-ज़ोर से आवाज़ लगा रही थी तुझे ! कान में क्या ठेपी डालकर बैठा था ? जमनाबाई डाँटती हुई। अब क्या बतायें ! झींगुर क़ानूनशास्त्र  में डी.लिट. जो कर रहा है। सुबह विश्वविद्यालय निकलना होता है सो न्यूज़ पेपर पढ़ने का टाईम कहाँ है उसके पास। विश्वविद्यालय से आने के बाद जो कुछ थोड़ा-बहुत समय बचता है उसमें भी उसकी परमप्रतापी बीवी से रोज़-रोज़ की झकझक! अब न्यूजपेपर पढ़े भी तो कैसे पढ़े ! ले-दे-के  पखाना ही वह शांत और एकांत स्थल बचता है जहाँ वह न्यूज पेपर पढ़ने के लिए समय निकाल सकता है। ख़ैर, झींगुर जमनाबाई के प्रश्नों का जवाब देना मुनासिब नहीं समझता और वो भी पूरी तन्मयता के साथ टीवी स्क्रीन पर अपने थके- हारे चक्षु गाड़ देता है... 

टीवी स्क्रीन पर बीते हुए धारावाहिक के पिछले एपिसोड की कहानी हैस टैग के साथ तैरने लगती
है...! और एक कड़क आवाज़ पूरे जमनाबाई निवास के सदस्यों के होश उड़ाने लगती... ! 
कुछ इस प्रकार ... !
पिछले एपिसोड में आपने देखा कि कैसे पार्वती पड़ाईन अपनी बहू डिम्पल के द्वारा निर्मित ख़ीर में नमक़ और लालमिर्च मिलाकर अपने बेटे छक्कन को परोसती है और छक्कन ख़ीर खाते ही ख़ीर का प्याला डिम्पल के मुँह पर दे मारता है परन्तु ख़ीर का प्याला डिम्पल को न लगकर उसके ससुर रामसरन पांडेय को जा लगता है और घर में एक कोहराम का माहौल छा जाता है... ! 
और अब आगे ... !  इतना कहते हुए टीवी स्क्रीन के पीछे से कड़कती आवाज़ ढोलक की एक थाप के साथ बंद हो जाती है और धारावाहिक का टाइटल गीत बजने लगता है। 

                                          कुछ क्षण के लिए पूरा जमनाबाई निवास इस ग़म में डूब जाता है कि छक्कन द्वारा उछाला गया ख़ीर का कटोरा डिम्पल के ससुर जी यानी रामसरन के सिर पर जाकर फूट जाता है। 
माँ जी ! बड़ी कमीनी सास है ! क्यूँ ! फुलझड़ी अपनी सास जमनाबाई की तरफ़ देखते हुए अपने क्रांतिकारी विचार व्यक्त करती है। अपने समुदाय की किरकिरी होता देख जमनाबाई भी अपनी कमर कसते हुए ," हाँ... ! हाँ... ! डिम्पल की ग़लती नहीं दिखती तुमको ! 
अरे ! पिछले एपिसोड में ऊ नासपीटी डिम्पल अपने सास की साड़ी पर गरमागरम चाय गिरा दीस रही ! तब तुमका नाही दिखा ! बड़ी आई डिम्पल की हितैषी ! कहते हुए जमनाबाई नाक-भौं सिकोड़ते हुए। 

                                       अब सास बहू के खेल में जीते कौन ! ई तो स्वयं हिमालय वाले ऊ सिद्ध बाबा भी नहीं बता सकते, भले ही उन्होंने तपस्या में अपने जीवन के सतकों वर्ष लगाए हों ! अब मुद्दा यह है कि "इन दोनों मोरनियों के मीठे चोंच ; अरब का कौन-सा ख़लीफ़ा बंद करने का ज़ोख़िम उठाये !" और बात, यहीं पर रुकती नहीं।
और हाँ ! ई बता ! तू कौन-सी  मेरी बड़ी सेवा कर देती है ! घर का सारा काम, झाड़ू-पौंछा सुबह से लेकर शाम तक मैं ही तो करती हूँ। तू कौन-सा बैठे-बैठे पहाड़ तोड़ती है। अरे झाँकना है तो अपने अंदर झाँक ! मुझसे ज़्यादा ज़ुबान मत चला ! दीवाली के मुर्ग़ा छाप पटाख़ों की तरह जमनाबाई अपनी बहुरिया फुलझड़ी पर फूटती हुई।

                                     ये आईं है; मिस एलिजाबेथ ! अरे का हम घर का कउनो काम ही नहीं करते ! घर का मॉर्डन इतिहास उठाके देख लो; अउरो  पढ़ लो ! किसी से कम काम करें तो हमरी चुटिया काटके भगवती माई पर चढ़ा देना ! आईं बड़ी काम करने .......

                                 उधर, दोनों सास-बहू को दुश्मनों की तरह लड़ता देख; हथियार डाल; पुरुषोत्तम महतो टीवी के रिमोट की ओर लपके। ख़बरदार वक़ीलसाहब जो आपने टीवी बंद किया ; इहें महाभारत हो जायेगा ! जमनाबाई वक़ीलसाहब को धमकाती हुई उन्हें टीवी बंद करने से रोकती है। दूसरी तरफ़ झींगुर इनकी लड़ाई से तंग आकर दूसरे कमरे में चला जाता है। तभी एकाएक; टीवी स्क्रीन पर बजने वाला डीम....डाम.....! बैकग्राउंड की ध्वनि तीव्र होने लगती है और पार्वती पड़ाईन चिकने-फिसलनदार फ़र्श पर आधे मुँह फिसलकर गिर जाती है; और टीवी स्क्रीन पर कुछ शब्दों "टू बी कॉनटिन्यू.......!" लिखने के साथ कड़कती ध्वनि सुनाई देने लगती है। आख़िरकार शीर्षक गीत-संगीत के साथ आज का लंकालगाऊ एपिसोड ख़त्म होता है। और जमनाबाई निवास के सभी सदस्य खाने के लिए रसोईंघर की तरफ़ प्रस्थान करते हैं।

                                अरे फुलझड़िया ! तनिक सब्ज़ी का कटोरा तो पास करना ! हुक़ुम चलाती हुई जमनाबाई। "जी, माँ जी ! अभी देती हूँ।" आज्ञा का समुचित पालन करती हुई फुलझड़िया। अरे ! दाल तो तूने बड़ा अच्छा बनाया है; और सब्ज़ी के तो क्या कहने ! फुलझड़िया की तारीफ़ के पुल बाँधती हुई जमनाबाई। फुलझड़िया जमनाबाई के मुँह अपनी बड़ाई सुनकर सातवें आसमान पर अभी चढ़ ही रही थी कि एकाएक जमनाबाई के श्रीमुख से एक करुणाभरी चीख़ निकल पड़ी !

                                 हाय रे ! हे भगवान ! ई जंगरचोर बहुरिया; आज तो हमका मारी डारिस रहल....  ! अरे ! तुमसे ठीक से काम नहीं होता तो बोल दिया कर; लेकिन ई प्राणघाती चावल बिना साफ़ किये मत बनाया कर ! आज तो मेरे, ई साठ बरस के दाँत भगवान को प्यारे होते-होते बचे हैं। अगले जनम में कउनो पुण्य किए होंगे हमने ! अब आप कह लीजिये, "सास शेर तो बहुरिया सवा शेर",
फुलझड़िया - अरे माँ जी ! चावल तो हमने ठीक से साफ़ किये रहे।
जमनाबाई - नाही तो का हम झूठ-मूठ का हल्ला मचा रहे हैं।
फुलझड़िया - हमरा ई मतबल नाही है। हम तो बस कह रहे हैं कि... !
जमनाबाई - बस-बस ! ज़्यादा जुबान न चला।
इस सास-बहु के हाई टेंशन ड्रामा से ऊबकर पुरुषोत्तम महतो अपनी खाने की थाली वहीं पटककर उठ खड़े हुए। और जल्दी-जल्दी हाथ धोकर अपने कमरे की ओर प्रस्थान करने लगे। तभी,
जमनाबाई - हाय रे ! हाय ! इहाँ हमरा दुख सुनने वाला कोई नहीं है। ई बुढ़वा पैंसठ बरस का हो गया लेकिन आज तक हमरा दुख समझने की कोशिश नहीं किया। कहते हुए नौ सौ आँसू, वहीं गिराने लगी।

शेष अगले अंक में                                                    
                       












बुधवार, 5 जून 2019



गरिमा ...  


मूल रचनाकार : ध्रुव सिंह 'एकलव्य' 
                                                               ध्वनि : ध्रुव सिंह 'एकलव्य'
            विशेष सूचना : प्रस्तुत रचना के सभी अंश, लेखक के पास सर्वाधिकार सुरक्षित हैं। 


सोमवार, 3 जून 2019

बोल दूँ ! हिम्मत नहीं गृहस्वामिनी !


बोल दूँ ! हिम्मत नहीं गृहस्वामिनी !



खाने-पीने वालों का दौर है..., अब दौर साहेब !
भूखे-नंगों की गुहारें, अब सुनता है कौन... !

वे 'रेस्तरां' में बैठकर , लिखते हैं ''सोज़े वतन''
नरकट की स्याही से, अब दर्द चुनता, है वो कौन.... !  

लिखना भी क्या मेरा था ! लिखते थे क्या वो ! डि.लिट. वाले,
छप भी गए तो, क्या उखाड़ लेंगे ! ब्याज़ पर दर ब्याज़ खेतों के, चुकाएगा कौन... ! 

खाने-पीने वालों का दौर है..., अब दौर साहेब !
भूखे-नंगों की गुहारें, अब सुनता है कौन... !

नीम उनका, ज़मीन भी है उनकी 
शतरंज़ की हर शह भी क्या, हर मात उनकी 
ठहरे हम तो सोनेवाले, उस नीम पे... 
रातभर इस शर्द में, चिल्लाएगा कौन !

खाने-पीने वालों का दौर है..., अब दौर साहेब !
भूखे-नंगों की गुहारें, अब सुनता है कौन... !

कहते-कहते सेवक तुम्हारा, बन गए अब स्वयंसेवक 
लग गए कुकर्मों के पुलिंदे गलियों में , भिश्ती बनकर बेशर्म-सा उठायेगा कौन...!

आजकल फ़ुर्सत नहीं है देख लूँ ! फ़िज़ा-ए-तस्वीरें वतन 
पीढ़ियों की रात, अब व्हाट्सप पर टँगी हैं 
सड़कों पे अब सोज़े वतन, चिल्लाएगा कौन...!

 खाने-पीने वालों का दौर है..., अब दौर साहेब !
भूखे-नंगों की गुहारें, अब सुनता है कौन... !

बोल दूँ ! हिम्मत नहीं गृहस्वामिनी ! अब ख़ून में,
मौन नेत्रों से सही, वह पूछती है ! चूड़ियाँ हैं मेज़ पर, खनकायेगा कौन...!  

 खाने-पीने वालों का दौर है..., अब दौर साहेब !
भूखे-नंगों की गुहारें, अब सुनता है कौन... !
    

'एकलव्य' 
    
         
     

शनिवार, 11 मई 2019

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मंगलवार, 15 जनवरी 2019

RISING AUTHOR AWARD 2019




आप सभी गणमान्य पाठकों एवं मित्रों को सूचित करते हुए मुझे अपार हर्ष का अनुभव हो रहा है कि इस वर्ष अक्षय गौरव पत्रिका के RISING AUTHOR AWARD 2019 का ख़िताब मुझे दिया गया है। आप सबके सहयोग हेतु धन्यवाद ! सादर 
'एकलव्य' 


मंगलवार, 8 जनवरी 2019

लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन 2019 - प्रविष्टि क्रमांक - 108 से 110 // ध्रुव सिंह 'एकलव्य' | रचनाकार

लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन 2019 - प्रविष्टि क्रमांक - 108 से 110 // ध्रुव सिंह 'एकलव्य' | रचनाकार: हिंदी साहित्य की ऑनलाइन पत्रिका hindi literature online magazine



लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन २०१९ में मेरी तीन लघुकथाएं :
१. मटमैला पानी, 
.''गिरगिट''
३. नौटंकी, 
दिए गए लिंक पर जाकर पढ़ें !  सादर 
                                                 
                                                           'एकलव्य'