"और वे जी उठे" !
मैं 'निराला' नहीं
प्रतिबिम्ब ज़रूर हूँ
'दुष्यंत' की लेखनी का
गुरूर ज़रूर हूँ
'मुंशी' जी गायेंगे मेरे शब्दों में
कुछ दर्द सुनायेंगे
सवा शेर गेहूँ के
एक बार मरूँगा पुनः
साहूकार के खातों में
भूखा नाचूँगा नंगे
तेरे दरवाज़ों पे
अपनी ही लेखनी का
एक फ़ितूर ज़रूर हूँ
मैं 'निराला' नहीं
प्रतिबिम्ब ज़रूर हूँ
'दुष्यंत' की लेखनी का
गुरूर ज़रूर हूँ
वह आज भी तोड़ती पत्थर
मिलती नहीं इलाहाबाद के पथ पर
तलाश तो बहुत थी
उसकी परछाईयों की
रह गई वो इमारतों की
नींव में धंसकर
खोदता उस नींव को
दिख जाये ! वो तोड़ने वाली
उसके अस्तित्व को टटोलता
क्षणभर का राहगीर ज़रूर हूँ
मैं 'निराला' नहीं
प्रतिबिम्ब ज़रूर हूँ
'दुष्यंत' की लेखनी का
गुरूर ज़रूर हूँ
मैं फिर हिलाऊँगा !
नींव की दीवार
मैं फिर चलाऊँगा !
लाशें हजार
मक़सद नहीं बलबा मचाने का
शर्त 'दुष्यंत' का है
तुझको जगाने का
मैं सरफिरा सिपाही
नशे में चूर हूँ
मैं 'निराला' नहीं
प्रतिबिम्ब ज़रूर हूँ
'दुष्यंत' की लेखनी का
गुरूर ज़रूर हूँ
एक वक़्त था,जब कभी
'मुर्दे' जगाता था
वो वक़्त था,खामोख्वाह ही
क़ब्रें हिलाता था
जागे नहीं वो नींद से
मर्ज़ी थी जो उनकी
ज़िन्दों की बस्ती में
आकर यहाँ
आँसूं बहाता हूँ
जग जा ! ओ जीवित मुर्दे
मैं पगला दुहराता हूँ
व्यर्थ स्वप्नों की पोटली
बाँधता ज़रूर हूँ
मैं 'निराला' नहीं
प्रतिबिम्ब ज़रूर हूँ
'दुष्यंत' की लेखनी का