बोल दूँ ! हिम्मत नहीं गृहस्वामिनी !
खाने-पीने वालों का दौर है..., अब दौर साहेब !
भूखे-नंगों की गुहारें, अब सुनता है कौन... !
वे 'रेस्तरां' में बैठकर , लिखते हैं ''सोज़े वतन''
नरकट की स्याही से, अब दर्द चुनता, है वो कौन.... !
लिखना भी क्या मेरा था ! लिखते थे क्या वो ! डि.लिट. वाले,
छप भी गए तो, क्या उखाड़ लेंगे ! ब्याज़ पर दर ब्याज़ खेतों के, चुकाएगा कौन... !
खाने-पीने वालों का दौर है..., अब दौर साहेब !
भूखे-नंगों की गुहारें, अब सुनता है कौन... !
नीम उनका, ज़मीन भी है उनकी
शतरंज़ की हर शह भी क्या, हर मात उनकी
ठहरे हम तो सोनेवाले, उस नीम पे...
रातभर इस शर्द में, चिल्लाएगा कौन !
खाने-पीने वालों का दौर है..., अब दौर साहेब !
भूखे-नंगों की गुहारें, अब सुनता है कौन... !
कहते-कहते सेवक तुम्हारा, बन गए अब स्वयंसेवक
लग गए कुकर्मों के पुलिंदे गलियों में , भिश्ती बनकर बेशर्म-सा उठायेगा कौन...!
आजकल फ़ुर्सत नहीं है देख लूँ ! फ़िज़ा-ए-तस्वीरें वतन
पीढ़ियों की रात, अब व्हाट्सप पर टँगी हैं
सड़कों पे अब सोज़े वतन, चिल्लाएगा कौन...!
खाने-पीने वालों का दौर है..., अब दौर साहेब !
भूखे-नंगों की गुहारें, अब सुनता है कौन... !
बोल दूँ ! हिम्मत नहीं गृहस्वामिनी ! अब ख़ून में,
मौन नेत्रों से सही, वह पूछती है ! चूड़ियाँ हैं मेज़ पर, खनकायेगा कौन...!
खाने-पीने वालों का दौर है..., अब दौर साहेब !
भूखे-नंगों की गुहारें, अब सुनता है कौन... !
'एकलव्य'
1 टिप्पणी:
भूखे नंगों की गुहारें अब सुनता है कौन? सुन्दर
वैसे भूखे नंगों की परिभाषा भी अब बदल गयी है अब उनसे ही गुहार करनी पड़ती है :)
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