सोमवार, 3 जून 2019

बोल दूँ ! हिम्मत नहीं गृहस्वामिनी !


बोल दूँ ! हिम्मत नहीं गृहस्वामिनी !



खाने-पीने वालों का दौर है..., अब दौर साहेब !
भूखे-नंगों की गुहारें, अब सुनता है कौन... !

वे 'रेस्तरां' में बैठकर , लिखते हैं ''सोज़े वतन''
नरकट की स्याही से, अब दर्द चुनता, है वो कौन.... !  

लिखना भी क्या मेरा था ! लिखते थे क्या वो ! डि.लिट. वाले,
छप भी गए तो, क्या उखाड़ लेंगे ! ब्याज़ पर दर ब्याज़ खेतों के, चुकाएगा कौन... ! 

खाने-पीने वालों का दौर है..., अब दौर साहेब !
भूखे-नंगों की गुहारें, अब सुनता है कौन... !

नीम उनका, ज़मीन भी है उनकी 
शतरंज़ की हर शह भी क्या, हर मात उनकी 
ठहरे हम तो सोनेवाले, उस नीम पे... 
रातभर इस शर्द में, चिल्लाएगा कौन !

खाने-पीने वालों का दौर है..., अब दौर साहेब !
भूखे-नंगों की गुहारें, अब सुनता है कौन... !

कहते-कहते सेवक तुम्हारा, बन गए अब स्वयंसेवक 
लग गए कुकर्मों के पुलिंदे गलियों में , भिश्ती बनकर बेशर्म-सा उठायेगा कौन...!

आजकल फ़ुर्सत नहीं है देख लूँ ! फ़िज़ा-ए-तस्वीरें वतन 
पीढ़ियों की रात, अब व्हाट्सप पर टँगी हैं 
सड़कों पे अब सोज़े वतन, चिल्लाएगा कौन...!

 खाने-पीने वालों का दौर है..., अब दौर साहेब !
भूखे-नंगों की गुहारें, अब सुनता है कौन... !

बोल दूँ ! हिम्मत नहीं गृहस्वामिनी ! अब ख़ून में,
मौन नेत्रों से सही, वह पूछती है ! चूड़ियाँ हैं मेज़ पर, खनकायेगा कौन...!  

 खाने-पीने वालों का दौर है..., अब दौर साहेब !
भूखे-नंगों की गुहारें, अब सुनता है कौन... !
    

'एकलव्य' 
    
         
     

1 टिप्पणी:

  1. भूखे नंगों की गुहारें अब सुनता है कौन? सुन्दर

    वैसे भूखे नंगों की परिभाषा भी अब बदल गयी है अब उनसे ही गुहार करनी पड़ती है :)

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