रविवार, 30 दिसंबर 2018

छद्दम वर्ष....



ये वर्ष का नया सिपाही,गीत अनोखा गाता हूँ...

बीत गईं, अब साँझ नई
लेकर आई है राग वही
बन नवल रात्रि में स्वप्न नये
कल नया सवेरा लाता हूँ।

ये वर्ष का नया सिपाही,गीत अनोखा गाता हूँ...

वर्षों बीते,सदियाँ बीतीं
गंदले इतिहास के पन्नों में
कुछ जीर्ण-शीर्ण, कुछ हरे-भरे
उन जख़्मों को सहलाता हूँ।

ये वर्ष का नया सिपाही,गीत अनोखा गाता हूँ...

प्रण धुँधला है और संशय भी
दृग-विहल अश्रु-सा कल-कल भी
तारीख़ें फिर-फिर आयेंगी
बनकर स्मृतियों-सा अनल समीर

मैं सूतपुत्र हूँ, कर्ण सही
कर्तव्य-अश्व  दौड़ाता हूँ।

नये वर्ष का नया सिपाही,गीत अनोखा गाता हूँ...

राजा ना हूँ मैं, प्रजा सही
कीचड़, मस्तक-तन सना सही
हल हाथों, न कोई खंज़र है
भूखी जनता हर घर-घर है
स्वप्न नये हैं , पौध यही
क्यारी-क्यारी बिखराता हूँ।

नये वर्ष का नया सिपाही,गीत अनोखा गाता हूँ...

अब दूर नहीं आशा अपनी
हर बोली है , भाषा अपनी
मैं भारत हूँ , न धर्म कोई
हों द्वेषविहीन, न मर्म कोई
हो नये वर्ष का धर्म यही
हाथों में तिरंगा ले-लेकर
बन नया वर्ष फहराता हूँ।

ये वर्ष का नया सिपाही,गीत अनोखा गाता हूँ... 
नये वर्ष का नया सिपाही,गीत अनोखा गाता हूँ...      

'एकलव्य' 

  ( प्रकाशित :  अंक 53, जनवरी(द्वितीय), 2019 साहित्यसुधा  )





शनिवार, 15 दिसंबर 2018

आभासी क्षितिज

( वर्तमान समय में पति-पत्नी के रिश्तों में शून्य होता प्रेम ! )



म थाम रहे थे हाथों से, गिरती वर्षा की बूँदों को...

स्नेह नया,वह साँझ नई
उर आह्लादित उम्मीदों को
कर बाँधा था उसके कर से
मन विलग रहा, पर-सा मन को

हम थाम रहे थे हाथों से, गिरती वर्षा की बूँदों को...

तैरा करते थे स्वप्न बहुत
कुछ मेरे लिए ,थोड़ा उनको
जीवन चलता,चरखा-चरखा
डोरी कच्ची है कातने को
मैं मानता ! गलती मेरी थी
स्नेह अधिक था पाने को

हम थाम रहे थे हाथों से, गिरती वर्षा की बूँदों को...

था क्षितिज, जो नभ में दौड़ रहा
हम दौड़ रहे अपनाने को
सौगंध थी जीने-मरने की
जीवित हैं केवल जीने को
मरने तो लगे दोनों प्रतिक्षण
मैं 'मैं' हूँ, केवल मैं ही रहूँ
'पर' से जग में दिखलाने को

हम थाम रहे थे हाथों से, गिरती वर्षा की बूँदों को...

स्मरण बहुत ही आते हैं !
जब हम थे,'मैं' का गमन रहा
ज्वर में मैं दर्द से ग्रसित रहा
बन ताप-सा तुझको आता था
गीली पट्टी और लेप लिए
माथा तेरा सहलाता था
घर के कोने अब लस्त पड़ा !
अश्रु कहते हैं आने को

हम थाम रहे थे हाथों से, गिरती वर्षा की बूँदों को...

चिट्ठी-पाती से भिजवाया 
तूने कहकर ,तू अलग रहे 
तब जोड़े थे उस अग्नि से 
यह रिश्ता अपना अलख रहे 
क्या भूल थी यह हम दोनों की !
कुछ मीठे सपने पाने को 

क्यूँ थाम रहे थे हाथों से, गिरती वर्षा की बूँदों को...?

वो पल थे, जब तुम होती थी
बनकर जीवन की आशा-सी
रंगों को भरती सपनों में
नभ 'इंद्रधनुषी' काया-सी
ये पल है, जब तुम 'काज' बनी
मेरी बदरंगी दुनिया की !
दुनियावाले बस कहते हैं
रिश्तों का नाम, निभाने को

हम थाम रहे थे हाथों से, गिरती वर्षा की बूँदों को...

र्शकदीर्घा ने खींच दिया
ड्योढ़ी हुई सीमा अपनी
रिश्ते हैं, काँच-से टूट गए
कुछ शेष नहीं बतलाने को

हम थाम रहे थे हाथों से, गिरती वर्षा की बूँदों को...

हते-कहते,अब 'मैं' ही हूँ
जीवन रस्ते ,विपरीत बनें
अब चलने को एकांत हमें   
भस्म हुए रिश्ते सारे 
बैठा 'मरघट' पछताने को 

हम थाम रहे थे हाथों से, गिरती वर्षा की बूँदों को...

'एकलव्य' 

शुक्रवार, 30 नवंबर 2018

उड़ जा रे ! मन दूर कहीं



उड़ जा रे ! मन दूर कहीं 
जहाँ न हों,धर्म की बेड़ियाँ 
स्वास्तिक धर्म ही मानव कड़ियाँ 
बना बसेरा ! रैन वहीं 

उड़ जा रे ! मन दूर कहीं ...  

श्वास भरे ! निर्मल समीर से 
विद्वेष रहित हो,द्वेष विहीन 
शुद्ध करे जो आत्मचरित्र 
बस तूँ जाकर ! चैन वहीं    

 उड़ जा रे ! मन दूर कहीं ...  

नवल ज्योति हो, नवप्रभात 
आत्मप्रस्तुति,कर सनात !
प्राप्त तुझे हो सत्य ज्ञान   
बुद्धरूपी ब्रह्माण्ड वहीं 

उड़ जा रे ! मन दूर कहीं ...  

कर स्पर्श करें जो नदियाँ
हृदय आनंदित,भाव-विभोर 
नभ संगिनी धरा मिली हो 
और मिलें हों  क्षितिज वहीं 

 उड़ जा रे ! मन दूर कहीं ...   

निष्पाप खग,प्राणी हों सुन्दर 
स्वर जो निकले,आत्मतृप्ति हो 
विस्मृत हों क्षण पीड़ा के 
खोज ! दिव्य स्थान कहीं 

उड़ जा रे ! मन दूर कहीं ...   

( अक्षय गौरव पत्रिका में प्रकाशित ) 


                                                                       'एकलव्य' 

शुक्रवार, 26 अक्टूबर 2018

बैरी पाती



शांत वेदना,अकलुषित मन हो,मिलकर प्रियतम रात सजल हो.........

स्वप्नचंद्रिका मिलने आई
प्रियवर तुमसे प्रीत लगाई
निशा पहर अब बीते दुख-सा
ग्रीष्म ऋतु बरसात बुलाई
स्मरण करूँ क्षण,नेत्र ही नम हो।

शांत वेदना,अकलुषित मन हो,मिलकर प्रियतम रात सजल हो.........

गए पिया परदेस कमाई
एक युग बीता,पात न आई
संशय होता भूल गए तुम
गाँव बहे ठंडी पुरवाई
तन लागे, कंटक अनुभव हो।

शांत वेदना,अकलुषित मन हो,मिलकर प्रियतम रात सजल हो.........

रोज निहारूँ डकिया बाबू
पूछूँ साहेब चिट्ठी आई
आस करूँ, वे कह दें हमसे
खाट बिछा ! मैं पानी लाई
कहते कह दूँ , पढ़ दो पाती !
प्रीत घुले मन ,तन शीतल हो

शांत वेदना,अकलुषित मन हो,मिलकर प्रियतम रात सजल हो.........

गाँव फसल अब दावन लागे 
मैं भी भर-भर भूसा लाई 
पर 'परजा' के फसल कट गए 
मेहनत मेरी 'गोरुअन' खाई 
साँझ चूल्हे मैं आग लगाऊँ, क्षुधा शांत और गुजर-बसर हो। 

शांत वेदना,अकलुषित मन हो,मिलकर प्रियतम रात सजल हो.........

बेर-बिसव चढ़ सूरज आया
दरवाजे कोहराम मचाया
लुकती-फिरती मड़ई में आई
पोंछ-पोंछ तन खूब नहाई
कहते चाचा,ओ री 'झमली' ! दौड़ी आ रे ! पाती आई
पढ़ दे बबुआ ! पाती मेरी, ठहर-ठहर मैं दौड़ी आई !
अनजाने तू कह दे मुझसे,वो आ रहे,स्वप्न सफल हो।

 शांत वेदना,अकलुषित मन हो,मिलकर प्रियतम रात सजल हो.........

अब अधीर, अब और न पगली
धीरज धर ! ओ जल की मछली !
खोलन दे ! पतिया तो मुझको
बिन पढ़के क्या कह दूँ तुझको !
भाव मैं जानूँ मुखमंडल के,युग-युग का अवसाद महल हो।

शांत वेदना,अकलुषित मन हो,मिलकर प्रियतम रात सजल हो.........

पढ़ते-पढ़ते हाथ से छूटा
'पात',पात से गिरकर टूटा
वाचन-वाचन रुध आया था
गला भाव से,आँख में फूटा
क्या कह दूँ ? ओ 'झमली' बता तू !
नाव बह रही ,पतवार गया डूब।
अब तू कहेगी मैं हूँ झूठा ,मुझ अनपढ़ को तुमने लूटा।

फिर भी कहूँगा,भूल जा उसको
'स्वर्ग' गमन में रूठ गया वो
शेष नहीं दुनिया में कोई
सात फेरों का किरिया-मंतर ,
क्षणभर में 'कुल' तोड़ गया जो
रो दे पगली ! भर-भर अंखियाँ ,तन पाषाण न बोझिल मन हो।

शांत वेदना,अकलुषित मन हो,मिलकर प्रियतम रात सजल हो.........

कैसे भूलूँ ? डकिया बाबू !
रोते-रोते रात न सोई
दिन ढलता था,बाट में उसकी
स्मरण करूँ तब भर-भर रोई।

डूबूँ या उतराऊँ सागर
फरक पड़े क्या 'ढाई'-आखर
पाती-पाती ना कोई नाता
ना बाबू ! अब तुम न आना !
चिल्लाना न ! पाती आई
गाँव-गाँव चुपके से जाना
बिन बैरी अब मड़ई सूनी ,तन जीवित मन ,मृतप्राय सकल हो।

शांत वेदना,अकलुषित मन हो,मिलकर प्रियतम रात सजल हो.........


'एकलव्य' : प्रकाशित रचना 'साहित्यसुधा' वर्ष: 3, अंक 48, नवम्बर (प्रथम) , 2018 )

 
पाती - चिठ्ठी 
गोरुअन - मवेशी 
परजा - गाँव के लोग 
कुल -ख़ानदान ( परिवार )
बाट - प्रतीक्षा 
मड़ई - घास-फूस का घर  

                                                                                                छायाचित्र : साभार गूगल 

रविवार, 16 सितंबर 2018

प्रकृति-'प्रीत'



चन्द्रपथिक-सा, ओ प्रियवर ! हौले-हौले मंडराता है .........   

निशाकलश छल-छल छलके 
जब बन चकोर तू गाता है। 

 चन्द्रपथिक-सा, ओ प्रियवर ! हौले-हौले मंडराता है .........    

भोर जा रही परदेस पिया 
रथ-रश्मि चढ़ तू आता है 
कुएँ पर घिरनी खींच रही 
तू मंद-मंद मुस्काता है। 

चन्द्रपथिक-सा, ओ प्रियवर ! हौले-हौले मंडराता है .........   

उड़ा रही माटी को मैं 
इन गोरी-गोरी बाँहों से 
माटी बनकर सम्मुख मेरे 
नित-नयन को क्यूँ भरमाता है !

चन्द्रपथिक-सा, ओ प्रियवर ! हौले-हौले मंडराता है .........   

माता-री मेरी बुला रही 
धुँएं से चूल्हा जला रही,
वेश धरन में नटखट है 
तू खाँसत-खाँसत अटकत है 
बन 'प्राणवायु का मीत' मेरे, नलियों में घुलता जाता है.......

चन्द्रपथिक-सा, ओ प्रियवर ! हौले-हौले मंडराता है .........    

हैं दरवज्जे कुछ 'नाद' बंधे 
बन पगहे सब साथ सजे 
क्षुधा लगी बारी-बारी 
चींखें सब आ री ! आ री ! 
चूनी-भूसी नद बोर रही 
पानी-पानी में घोर रही 
बन भूसा लिपटा माने ना !
ओ रे ! प्रियवर, तू जाने ना 
कर लाज-शरम ! सब देखत हैं 
आँखें मींचूँ, स्पर्श करे,ओ जुल्मी ! तू इठलाता है। 

चन्द्रपथिक-सा, ओ प्रियवर ! हौले-हौले मंडराता है .........   

पगडण्डी पर चलती जाती 
थोड़ी गिरती और लहराती 
पीले सरसों के बौंरों से 
हँसती हूँ, तनिक लजा जाती
भरसक प्रयत्न तू करता है,कदमों में मेरे आ जाए 
बन राह में छोटे कंकड़-सा,कोमल-से हृदय समा जाए 
दृग-भ्रमित मैं क्षणभर हो जाऊँ !
नित वैरी जाप लगाता है। 

चन्द्रपथिक-सा, ओ प्रियवर ! हौले-हौले मंडराता है ......... 

हल्दी,चंदन का बन उबटन 
देह लगाएं संग सखी 
मलती भर हाथों से पांव मेरे 
तू प्रीत-सा चिपका जाता है 
वस्त्र ब्याह के जुगनू-सा, टिम-टिम चमके जाता है। 

चन्द्रपथिक-सा, ओ प्रियवर ! हौले-हौले मंडराता है .........   

साथ नहीं अब भी छोड़ा 
कर काँधे से मुझको जोड़ा 
उठा रहा परदेसी-सा 
और डोल रहा थोड़ा-थोड़ा 
मैं झांक रही डोली चढ़कर,नित परिचित-सी बाबुल के घर 
मन आह्लादित भी ! बन अश्क गिरे ,चंचल स्मृतियों-सा आज बहे 
नग्न पांव उठा डोली ,ओ पगला ! चलता जाता है .......

चन्द्रपथिक-सा, ओ प्रियवर ! हौले-हौले मंडराता है .........   

अब सजना से ही प्रीत भई 
चकिया में पिस-पिस रेत हुई 
जीवन अखरी-सा दाल हुआ 
कब प्रेमनगर कंगाल हुआ !

नित सास-ससुर अब डांटत हैं,मोरे सजना मोहे भांपत हैं 
मैं दासी रह गई 'पर' आँगन, खूँटे में क्षण-क्षण बाँधत हैं 
खूँटे में बंधा ओ रस्सी-सा ! मुझको तू बड़ा नचाता है।

चन्द्रपथिक-सा, ओ प्रियवर ! हौले-हौले मंडराता है .........   

है गमन कर रहा यौवन मेरा 
तू ठहरा-ठहरा देख रहा 
'प्रतिलिपि' अब दौड़ें मेरी
जीवन समीप अब खेद रहा,
जर्जर हुआ बदन मेरा,काया सर्पिल-सी डोल रही 
श्रीमुख से अब ना दर्द बहे ,मैं मन ही मन में बोल रही...... 

है कंठ सूखता,प्यास लगी 
दे-दे पानी कोई ,आस लगी 
तू शीतल-शीतल बैठा है,चुलबुल पानी के मटके-सा 
मैं तरस रहीं हूँ बूँदों को, बौरा तू रिसता जाता है .......    

चन्द्रपथिक-सा, ओ प्रियवर ! हौले-हौले मंडराता है .........   

पहले सजना 'यमदेश' गए 
अब बालक भी परदेस गए 
मैं अधमरी खाट पड़ी पगली 
चलने से मृत्यु लाख भली 

कर खिसक-खिसककर उठती हूँ ,गिरती एकांत संभलती हूँ 
ताने मारे वो प्रेमपथिक ,बन श्याम मेघ छिप जाता है। 

चन्द्रपथिक-सा, ओ प्रियवर ! हौले-हौले मंडराता है .........   

अब चार टाँग की शैय्या पर
लेटी हूँ जैसे रात धवल 
दुल्हन थी कभी 
अब शव बनकर !

ढकता जाता उसी पगले से, मेरी काया लाचार हुई 
एक दिन था बचती फिरती थी,उस परदेसी के साथ चली...... 

पलभर में धूल हुआ यौवन ,कभी पल-पल जो इठलाता था 
स्वर शहनाई-सा शांत हुआ, जो 'मधुकर' बगिया गाता था 

नदिया में रेत विलीन हुआ ,क्षणभर में गहराई जाकर 
'प्रेमपथिक' आह्लादित है,मुझको खुद में खुद से पाकर 
आत्मतृप्ति की खुशियों  से ,वो लहर-लहर लहराता है 

चन्द्रपथिक-सा, ओ प्रियवर ! हौले-हौले मंडराता है .........   


'एकलव्य'                   ( प्रकाशित : वर्ष: 3, अंक 46, अक्टूबर(प्रथम), 2018 साहित्यसुधा  )



अखरी = पत्थर की चकरी में पिसी दाल 
नाद = मवेशियों के खाने का बर्तन   
पगहा = मवेशियों को बांधे जाने वाली रस्सी 
   छायाचित्र : साभार गूगल      

सोमवार, 20 अगस्त 2018

चलचित्र !



आँखों में पाले अबतक, कई ख़्वाब सजल थे 
आते-आते रस्ते में,जो बीत गए थे...................     

थी धवल केश-सी चिरपरिचित 
बन भूत-सी मिटती स्याही की 
बनकर आई है,साँझ वही 
कुछ ख़्वाब नवल थे..........   

आँखों में पाले अबतक, कई ख़्वाब सजल थे 
आते-आते रस्ते में,जो बीत गए थे...................   

माथे हैं चिन्हित झुर्रि-सी, यौवन भूत की अंगड़ाई 
कर कोमल बीती सदियाँ थीं , पाषाण उर अवशेष बने थे 
कह दूँ प्रियतम ! कैसी हो तुम ?
संकेत बने थे ......... 

आँखों में पाले अबतक, कई ख़्वाब सजल थे 
आते-आते रस्ते में,जो बीत गए थे...................     

वह काल था सुन्दर क्षणभर 
जब तू आई थी 
मैं हारा-हारा रहता, 
तू शरमाई-सी
भागा-भागा मैं फिरता,
तू कतराई-सी  
चट्टी की चाय पे बैठा,
मनमाने दिन थे 
पीछा करता, तू भागे 
अनजाने दिन थे .........

आँखों में पाले अबतक, कई ख़्वाब सजल थे 
आते-आते रस्ते में,जो बीत गए थे...................     

डेरे डाले रहता था, मैं छत के ऊपर 
कभी श्वान-सा लेटा-लेटा, नाले पर जाकर 
बन धवल चन्द्रिका आई, 
तू बनकर उस क्षण 
पलभर में सदियाँ जी ली !
तुझे दूर से पाकर 
तुझको क्या बतलाऊँ ? ओ प्रियतम !
रात तिमिर में स्वप्न लिए 
वे कैसे दिन थे !

आँखों में पाले अबतक, कई ख़्वाब सजल थे 
आते-आते रस्ते में,जो बीत गए थे...................     

बाइस्कोप-सी आँखें , मंडराई फिरती 
मंद-मंद मुस्काती 
अधरों से पेंच लड़ाती 
मुँह में थी, केश चबाती 
मैं लुटा-लुटा करता था 
जलसे के दिन थे ......... 

आँखों में पाले अबतक, कई ख़्वाब सजल थे 
आते-आते रस्ते में,जो बीत गए थे................... 

मैं इधर-उधर भागा था, पुरवाई बनकर 
एक चीख़-सी गूँजी नभ में, शहनाई बनकर 
डोली उठी थी तेरी, रुसवाई बनकर
खोया-खोया मैं रहता
तन्हाई बनकर 
हृदय से फूटी धारा,
गूँगे-से पल थे.........

आँखों में पाले अबतक, कई ख़्वाब सजल थे 
आते-आते रस्ते में,जो बीत गए थे................... 

कितनी बार था झाँका ! मधुशाला मैंने 
उठता-उठता मैं गिरता, आवारापन में 
पर लाख दुआएं माँगी , इस क्रोधित मन से 
कैसे बतलाऊँ, ओ प्रियतम ! 
बड़े टेढ़े दिन थे.......... 

आँखों में पाले अबतक, कई ख़्वाब सजल थे 
आते-आते रस्ते में,जो बीत गए थे................... 

अब टिप-टिप करती बूँदें नलियों से आतीं  
फिर बारिश की वो रिमझिम, स्मरण कराती 
अंतर है ! भींगता मैं हूँ 
तू देख न पाती 
बोतल की लड़ियाँ टँगी हुईं, नित तेरे करतल 
थोड़ा जी ले ! ओ प्रियतम ! 
मैं आज बुलाता 
निज नयन से क्षणभर कह दे !
बड़े अच्छे दिन थे .........  

आँखों में पाले अबतक, कई ख़्वाब सजल थे 
आते-आते रस्ते में,जो बीत गए थे...................

श्वेत साज पर लेटी, तेरी मोहक काया 
नहीं आज उठाने कोई ,परदेशी आया 
व्यग्र हुआ मैं आज कि तुझको फिर थामूँगा 
कांधे पर रखूँगा कई बार तुझे 
और मैं गाऊँगा। .........

आँखों में पाले अबतक, कई ख़्वाब सजल थे 
आते-आते रस्ते में,जो बीत गए थे...................


'एकलव्य' 



रविवार, 8 जुलाई 2018

काहे बोला !

साहित्य ही है 'धर्म' !
जब उसने कहा था, 
तंज की गहराईयों में 
जा फँसा था। 
लेखनी चम-चम बनी थी
प्रगति द्योत्तक !
जा रे ! जा ! बहरूपिये 
झुठला रहा था। 

बुद्धिजीवी साहित्य के थे 

वे पुलिंदे,
कोने-कोने में छुपा 
भय खा रहा था। 

रे फिरंगी ! प्रतियाँ जलाईं 

क्यों रे ! उनकी 
जग में कोलाहल मचा 
वो गा रहा था। 

भूत के वे 'भूत'

शोर करते यहाँ हैं  
सत्य के साहित्य अब 
बचते कहाँ हैं ?

शेर के हैं 'शेर' जो 
फिरते अरण्य में, 
तब अनोखा शेर ही 
भरमा रहा था। 

जी करे है,कान पकड़ूँ 

रे ! रे ! निर्लज्ज 
बता-बता अपनी विरासत 
दिखला रहा था। 

लेखनी का खेल न

पृष्ठों की ज़रूरत 
खेल है विज्ञान का निष्ठुर सत्य-सा 
कोने में साहित्य बैठा 
ग़म खा रहा था। 

विडम्बना है विधाओं की 

अब तक निराली ,
त्याग से अर्जित किया था जो भी उसने 
ऐश की बाँहों में ख़र्चे जा रहा था। 

दे रही चिड़िया सयानी 

उनको नसीहत 
क्या करूँ ! समझा नहीं हूँ 
कहते-कहते 
घोसलों को उनके 
तोड़े जा रहा था। 

साहित्य ही है धर्म !

जब उसने कहा था।  

'एकलव्य' 
    

बुधवार, 20 जून 2018

अप्रगतिवादी सोच का मानव !



लालसा उस बौर की 
अमिया की डाली पर 
पल्लवित-पुष्पित होती। 
नाहक था इंतजार 
छोटी-छोटी अमिया !
लू चलती
हवाओं के थपेड़े में 
नंग-धडंग, पेड़ की छाँव में 
बैठे हम। 
गमछे की पोटली से निकालता 'रमुआ'
नमक,मिर्च की पुड़िया,
छील रहा था 'काका'
अमिया को,
तालाब से निकले उस सीप के 
चाकू से,
दक्षतापूर्वक बड़े। 
प्रतीक्षा थी सभी को, 
अमिया के उस छिलके की 
अमृत-सा था स्वाद जिसका 
तुलना में,
प्रगतिवादी सोच के मॉडर्न पिज़्जा,बर्गर से। 
बेहतर था,खुली हवा में 
मुफत के उस अमिया का स्वाद,
दौड़ती-भागती जिंदगी के 
बंद वातानुकूलित कक्ष से। 
बिना कपड़ों के,
कीचड़ से भरे तालाब में 
लंच में, अमिया का स्वाद लेने के पश्चात् 
खेलना, ताल-तलैया 
अनुभूति होती थी 
स्वर्ग-सी !
तुलना में,केवड़े के पानी से भरे 
स्वीमिंग पूल में 
बेहतर था,
अप्रगतिवादी सोच का 
मानव मैं !
बेहतर था। .........    
                                                     
'एकलव्य'          
                                    छायाचित्र : साभार गूगल 

गुरुवार, 31 मई 2018

बाज़ारू हूँ ! कहके....


                                                   बाज़ारू हूँ ! कहके.... 



बंध के बजती पैरों में मैं 
चाहे सुबह हो शाम 
ले आती मैं,प्यार के बादल 
हो कोई खासो-आम। 

कभी नायिका के पैरों बंधकर, 

मैं महफ़िल रंगीन करूँ। 
नई-नवेली दुल्हन बनकर 
पिया का घर खुशियों से भरूँ। 

ये समाज बांटे है मुझको 

दुनिया के दो खेमों में, 
बिन ब्याही घुँघरू जो पहनूँ 
गोरे-गोरे पाँवों में। 

रात भए जो लोग हैं कहते 

स्वर्ग अप्सरा मान मुझे,
बनकर भगवन प्राण लुटाते 
रात जाती हो भोर तले। 

हो प्रकाश जो दिनकर आयें 

छँटा अँधेरा,चंद्र तले 
अब लगती मैं सुरसा डायन 
वही समाज है छींटा कंसे। 

वही कहें हैं,तू है पतिता !

जीवन का सर्वनाश करे। 
रात्रि हुए थी प्राणदायिनी !
दिन के उजाले प्राण हरे। 

अंधकार में कुछ ने लूटे 

कहकर प्रिय हो लाज मेरे 
वही प्रकाश में कहते मुझको 
पाप है तू ,दुनिया में बसे। 

जो मंदिरा अधरों से लगायें 

छन-छन सुनकर राग कहें 
अचेत-चेत जो अपने खोये 
मन में ना वैराग्य जगे। 

धर्म-अधर्म की बातें करते

बैठ धर्म की सीढ़ी पर
क्षणभर में वो भूल ही जाते 
कल बैठे थे कोठे पर। 

मेरा क्या है ! मैं तो बजती 

मंदिर से चौराहों पर 
स्वर जो निकले,कभी न बदले
मानव की इच्छाओं पर। 

स्मरण मुझे है, मैं थी दुल्हन 

बँधी थी मैं, लाल रंग लगे 
ऐश्वर्य ढका घूँघट में मेरे 
बना समाज था लाज मेरे। 

हर कोई देखा था मुझको 

भरे सम्मान के नयनों से 
खिल जातीं थीं बाँछे मेरी 
हो अभिभूत उन नेत्रों से। 

हुई थी विधवा, मैं जो पगली 

नयन वही, जो मलिन हुए। 
बनें थे पायल गम के आँसू 
बंधकर जो डोली थे चढ़े। 

कभी दीये जो घर के जलाये 

करूँ मैं रौशन महफ़िल आज। 
बनकर चली सम्मान किसी दिन 
दिन है आज,जो खोऊँ लाज़ !

शब्दों की ये अदला-बदली 

समझ सकी ना, जो मैं पगली 
दिया था रुतबा देवी कहके 
आज उतारे हैं ,बाज़ारू हूँ, 
जो कहके.............. !





                                                   "एकलव्य"
छायाचित्र : साभार गूगल 

शनिवार, 26 मई 2018

ख़त्म करो !


              
               ख़त्म करो !


हाँ सखी ! मैंने तन बेचा है। 
दिल्ली की उन सड़कों पर 
अपना कलुषित मन बेचा है। 

हाँ सखी ! मैंने तन बेचा है।....... 

गुड़-गुड़ करते इस उदरपूर्ति को,
ठिठुरन-सी सर्दी रातों में 
मिथ्या चादर-सा स्वप्न लिए 
मोटों से पानी खींचा है। 

 हाँ सखी ! मैंने तन बेचा है। 
 दिल्ली की उन सड़कों पर 
अपना कलुषित मन बेचा है।

हाँ सखी ! मैंने तन बेचा है।.......  

बिन ब्याहे श्रृंगार किया 
सारे सपनों को पार किया 
विक्राल नहीं थे ! क्षणिक स्वप्न 
बस दो जून की रोटी को,
उनको आडम्बर बेचा है। 

 हाँ सखी ! मैंने तन बेचा है। 
दिल्ली की उन सड़कों पर 
अपना कलुषित मन बेचा है। 

हाँ सखी ! मैंने तन बेचा है।....... 

राजधानी न्याय की 
नई दिल्ली !
कहते-कहते मैं रोती हूँ।  
सीवर का पानी मुँह भरके 
तन को ठंडक मैं देती हूँ। 
अन्याय की चौखट पर मैंने, 
यूँ न्याय को बिकते देखा है। 

 हाँ सखी ! मैंने तन बेचा है। 
दिल्ली की उन सड़कों पर 
अपना कलुषित मन बेचा है। 

हाँ सखी ! मैंने तन बेचा है।....... 

नारी-शक्ति के ज़ुमले दिए 
सरकारें आनी-जानी हैं।  
कल वे कुर्सी पर बैठे थे,  
आज कोई यूँ ऐंठा है। 
न्याय की लाख गुहार लिए 
मैंने परिवर्तन बेचा है। 

हाँ सखी ! मैंने तन बेचा है। 
दिल्ली की उन सड़कों पर 
अपना कलुषित मन बेचा है। 

हाँ सखी ! मैंने तन बेचा है।....... 

धर्मों की, क्या मैं बात करूँ !
उनके ईश्वर लाचार हुए, 
पर-निज के मिथ्या जांतें में 
खुद को पिसते 
बरबस ही देखा है। 

हाँ सखी ! मैंने तन बेचा है। 
दिल्ली की उन सड़कों पर 
अपना कलुषित मन बेचा है। 

हाँ सखी ! मैंने तन बेचा है।....... 

माँग रही हूँ .........
न्याय आज भी,
व्यंग भरी उन नज़रों से 
करके प्रदर्शित, प्रत्यक्ष स्वयं को 
उनको लड़ते देखा है। 

 हाँ सखी ! मैंने तन बेचा है। 
दिल्ली की उन सड़कों पर 
अपना कलुषित मन बेचा है। 

हाँ सखी ! मैंने तन बेचा है।....... 

बहुत हुईं अन्याय की बातें 
ठंडी-सी,अब न्याय की बातें 
स्वप्न सही,परन्तु,लेकिन ...... 
स्वयं को उड़ते देखा है....... !

हाँ सखी ! मैंने तन बेचा है। 
दिल्ली की उन सड़कों पर 
अपना कलुषित मन बेचा है। 

हाँ सखी ! मैंने तन बेचा है।....... 

(प्रस्तुत 'रचना 'मेरे तीन वर्ष विद्यार्थी के रूप में दिल्ली प्रवास के दौरान हुए सत्य अनुभवों पर आधारित है। )
                                             'एकलव्य'
                                                         



     छायाचित्र स्रोत : साभार गूगल 

बुधवार, 16 मई 2018

चार पाए




घर के कोने में 
बैठा-बैठा फूँक रहा हूँ,
उस अधजली सिगरेट को। 

कुछ वक़्त हो चला है,
फूँकते-फूँकते
धूम्र-अग्नि से बना 
क्षणिक मिश्रण वह। 

डगमगा रहे हैं पाए 
कुर्सी के 
बैठा हूँ जिसपर,
कारण वाज़िब है ! 

तीन टाँगों वाली,वह कुर्सी 
बैठकर सोचता हूँ मैं,
जीवन के वो हसीन पल !
फेरता हुआ पकी दाढ़ी पर 
हाथ अपने। 

उखाड़ता हूँ,रह-रहकर 
कुछ बाल पके-से 
छुपाने हेतु,
अपने उम्र की नज़ाकत !
मरते थे दुनियावाले जिसपर। 

तब बात भी कुछ और थी 
उस कुर्सी की। .... 

हिलती नहीं थी इतनी,
सिगरेट के प्रत्येक कश पर 
ज़ाहिर है !.... 

रहे होंगे 
चार पाए उसके 
जीवित !
मेरी जिंदगी की तरह..... ।  

( निराशा के भंवर में फँसा मैं ! )


'एकलव्य' 

बुधवार, 18 अप्रैल 2018

स्वप्न में लिखता गया कुछ पंक्तियाँ !

क्या करूँगा ! ये ज़माना रुख़्सत करेगा 
चस्पा करेगा गालियाँ मुझपर हज़ारों। 

कुछ कह सुनायेंगे, तू बड़ा ज़ालिम था पगले !
कुछ होके पागल याद में,नाचा करेंगे। 


मैं जा रहा हूँ ज़िंदगी 
तूँ लौट आ !
गा रहा हूँ गीत जीवन 
धुन बना !

मर रहा हूँ 
मैं जो प्रतिक्षण 
दोष मेरा 
इल्तिज़ा तुझसे है बाक़ी 
मान जा !

कुछ फूँकते शहनाईयाँ 
क़ब्र पर मेरे, 
नापसंद यह धुन मुझे 
अब क्या करूँ ?
कहकर विदाई दे रहे 
अंतिम यहाँ। 


सोया पड़ा हूँ 
देखकर 
चिल्ला रही माँ। 
मिन्नतें कर-करके हारी 
फुसला रही माँ। 
लाल उठ जा ! भोर हुई 
बतला रही माँ। 
देर तक सोना नहीं !
समझा रही माँ। 

पर क्या करूँ !
अशक्त-सा 
मैं हूँ पड़ा। 

चादर ओढ़ाते देखकर 
घबरा रही माँ। 
मुझको लिटाते, सोचकर 
गंगा बहा रही माँ। 
बाँस की तख़्ती पर पसरा 
तकिया लगा रही माँ। 

चार कांधे तैयार हैं 
ढोने को मुझे हो नग्न से !
खींच-खींच तख़्ती मेरी 
बिठा रही माँ। 

जूठे पड़े हैं बर्तनों के ढेर-से 
आज ख़ुश हूँ देखकर 
क्यूँ रो रही माँ ?
⧫  

वक़्त आ गया है,चलने का मेरे 
छोड़ माँ ! तख़्ती मेरी 
फिर लौट आने के लिए। 

सोच ले ! तूँ फिर झुलाएगी मुझे 
डोरियों में हाँथ बाँधे,स्वप्न-सा। 
⧫   

मैं फिर से मुँह में भरकर माटी खाऊँगा। 
भागेगी मेरे पीछे तूँ बन पगली-सी  
दीवारों की ओट में छिप जाऊँगा। 

रोने का नाटक करेगी, झूठी तूँ  
मोम-सा हृदय मैं पिघलाऊँगा। 

चिपकाऊँगा नन्ही उँगलियाँ,नेत्रों पर तेरे
पूछूँगा ! मैं कौन हूँ ? बतलाऊँगा। 

आँगन में पुनः मैं 
लाल बनकर आऊँगा।    

                                 'एकलव्य' 

शनिवार, 24 मार्च 2018

मच्छर बहुत हैं !

मच्छर बहुत हैं,आजकल 
गलियों में मेरे। 
बात कुछ और है 
उनकी गली की !

लिक्विडेटर लगाकर सोते हैं वे 
भेजने को गलियों में मेरे 
क्योंकि !
संवेदनाएं न शेष हैं ,अब 
मानवता की। 

मच्छर बहुत हैं,आजकल 
गलियों में मेरे। 

पानी ही पानी रह गया 
घुलकर रसायन रक्त में 
अब कह दिया है 
छोड़ने को 
गालियाँ जो उनकी 
थीं कभी
उन मच्छरों से। 

क्या करूँ,
दिल है बड़ा 
मेरा अभी भी 
अंजान मेहमानों के लिए 
सो मच्छर बहुत हैं,आजकल 
गलियों में मेरे। 

चूसना है 
चूस लो !
ऐ उड़ने वालों 
फ़र्क क्या ? 
उनकी गलियों के निवासी 
तुम थे कभी। 

मच्छर बहुत हैं,आजकल 
गलियों में मेरे। 

धीरज धरो ! तुम ना डरो 
जेब है ख़ाली मेरी। 
अशक्त हूँ और त्रस्त भी 
उनकी कृपा है। 

'लिक्विडेटर' ,बात छोड़ो !
रोटी के लाले पड़े हैं। 
श्वास जब तक
है भरोसा !
मेरी रहेंगी सर्वदा 
गालियाँ खुलीं। 

मच्छर बहुत हैं,आजकल 
गलियों में मेरे। 

मत लजाना ! 
रोज आना  
रक्तपान कर 
तृप्ति पाना। 
जो मिले 
उनको भी लाना।   

हा ....हा ... हा।  
क्या करूँ ?
मच्छर बहुत हैं, आजकल
गलियों में मेरे।  

"एकलव्य" 
छायाचित्र :साभार गूगल 

मंगलवार, 30 जनवरी 2018

मैं हूँ अधर्मी !


 मैं हूँ अधर्मी !

 तैरती हैं झील में 
वे ख़्वाब जो धूमिल हुए। 
कुछ हुए थे रक्तरंजित 
सड़कों पर बिखरे पड़े। 

चाहता धारण करूँ 
शस्त्र जो हिंसा लिए 
याद आते हैं, वे बापू 
स्नेह जो मन में भरें। 

भूख भी तांडव मचाती 
रह-रहकर पापी उदर में 
हूँ विवश,करने को कर्म 
नैतिक प्रकृति से परे। 

कल काटता हांसिये सहारे 
उग गए जो खेत में 
कट गए अब स्वप्न सारे 
शेष से बस खूँट हैं। 

जन्मा नहीं था, मैं अनैतिक 
नैतिक ही था बस रक्त में 
'करवटें' परिस्थितियों की ऐसी 
खींच लाया 'नर्क' में।

पूजता था, मैं भी पत्थर
 इष्ट उनकों मानकर 
जल चढ़ाता ,तिल गिराता 
भावभीनी  स्नेह से। 

विमुख नहीं, मैं आज भी हूँ 
कट्टर पुजारी धर्म का। 
एक 'अनुत्तरित' प्रश्न भी है 
मुझको बता दो !
धर्म क्या ?

ज्ञान मेरा, हुआ विस्तारित 
धर्म क्या ?
अधर्म क्या ?
मैं तो जानूँ , धर्म मानव !
भेद तो तुमने किया। 

सोता हूँ, मैं 
धर्म है !
रोता हूँ, मैं
धर्म है !
खाता हूँ ,मैं 
धर्म है !
स्नेह मुझको तुमसे है 
यह धर्म है ! यह धर्म है !
कल गिरे थे, तुम सड़क पे 
तुमको उठाया। 
धर्म है !
भूख से वो मर रहा 
रोटी खिलाया। 
धर्म है !

विचलित हुआ इनसे कभी 
अधर्म है ! अधर्म है !

अब बता ! मुझको अभी 
तूं किस माटी का धर्म है ?
ना मैं हिन्दू !
ना मैं मुस्लिम !
मानवता ही धर्म है !
केवल यही एक 'मर्म' है।
फिर भी पूजे, पुतले बनाकर
माटी से है, जो बना 
पानी पी-पी धर्म बताए 
बन अशक्त-सा 
मैं खड़ा। 

समझ न पाया सदियों से 
शाश्वत स्वभाव ही 
धर्म है ..... !

( हाँ ! मैं हूँ अधर्मी। )

"एकलव्य"











रविवार, 14 जनवरी 2018

जीवित स्वप्न !

 जीवित स्वप्न !


चाँद के भी पार होंगे 
घर कई !
देखता हूँ रात में 
मंज़र कई 

चाँदी के दरवाज़े 
बुलायेंगे मुझे 
ओ मुसाफ़िर ! देख ले 
हलचल नई 

वायु के झोंकों से 
खुलेंगी खिड़कियाँ जो 
स्वर्ण की !
पूर्ण होंगी, स्वप्न की वो तारीख़ें 
अपूर्ण सी ! जीवन में 
बनकर रह गईं। 

चाँद के भी पार होंगे 
घर कई !

सूख सी रोटी गई है 
थाल में 
उम्मीद की गर्मियों से 
ताज़ी हो गईं। 

देखता हूँ रात में 
मंज़र कई 
चाँद के भी पार होंगे 
घर कई !


"एकलव्य"