साहित्य ही है 'धर्म' !
जब उसने कहा था,
तंज की गहराईयों में
जा फँसा था।
लेखनी चम-चम बनी थी
प्रगति द्योत्तक !
जा रे ! जा ! बहरूपिये
झुठला रहा था।
बुद्धिजीवी साहित्य के थे
वे पुलिंदे,
कोने-कोने में छुपा
भय खा रहा था।
रे फिरंगी ! प्रतियाँ जलाईं
क्यों रे ! उनकी
जग में कोलाहल मचा
वो गा रहा था।
भूत के वे 'भूत'
शोर करते यहाँ हैं
सत्य के साहित्य अब
बचते कहाँ हैं ?
शेर के हैं 'शेर' जो
फिरते अरण्य में,
तब अनोखा शेर ही
भरमा रहा था।
जी करे है,कान पकड़ूँ
रे ! रे ! निर्लज्ज
बता-बता अपनी विरासत
दिखला रहा था।
लेखनी का खेल न
पृष्ठों की ज़रूरत
खेल है विज्ञान का निष्ठुर सत्य-सा
कोने में साहित्य बैठा
ग़म खा रहा था।
विडम्बना है विधाओं की
अब तक निराली ,
त्याग से अर्जित किया था जो भी उसने
ऐश की बाँहों में ख़र्चे जा रहा था।
दे रही चिड़िया सयानी
उनको नसीहत
क्या करूँ ! समझा नहीं हूँ
कहते-कहते
घोसलों को उनके
तोड़े जा रहा था।
साहित्य ही है धर्म !
जब उसने कहा था।
जब उसने कहा था,
तंज की गहराईयों में
जा फँसा था।
लेखनी चम-चम बनी थी
प्रगति द्योत्तक !
जा रे ! जा ! बहरूपिये
झुठला रहा था।
बुद्धिजीवी साहित्य के थे
वे पुलिंदे,
कोने-कोने में छुपा
भय खा रहा था।
रे फिरंगी ! प्रतियाँ जलाईं
क्यों रे ! उनकी
जग में कोलाहल मचा
वो गा रहा था।
भूत के वे 'भूत'
शोर करते यहाँ हैं
सत्य के साहित्य अब
बचते कहाँ हैं ?
शेर के हैं 'शेर' जो
फिरते अरण्य में,
तब अनोखा शेर ही
भरमा रहा था।
जी करे है,कान पकड़ूँ
रे ! रे ! निर्लज्ज
बता-बता अपनी विरासत
दिखला रहा था।
लेखनी का खेल न
पृष्ठों की ज़रूरत
खेल है विज्ञान का निष्ठुर सत्य-सा
कोने में साहित्य बैठा
ग़म खा रहा था।
विडम्बना है विधाओं की
अब तक निराली ,
त्याग से अर्जित किया था जो भी उसने
ऐश की बाँहों में ख़र्चे जा रहा था।
दे रही चिड़िया सयानी
उनको नसीहत
क्या करूँ ! समझा नहीं हूँ
कहते-कहते
घोसलों को उनके
तोड़े जा रहा था।
साहित्य ही है धर्म !
जब उसने कहा था।
'एकलव्य'
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (14-10-2019) को "बुरी नज़र वाले" (चर्चा अंक- 3488) पर भी होगी।
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रवीन्द्र सिंह यादव
वाह
जवाब देंहटाएंवाह !नि:शब्द हूँ आदरणीय
जवाब देंहटाएंबेहतरीन और बेहतरीन..
सादर