बुधवार, 16 मई 2018

चार पाए




घर के कोने में 
बैठा-बैठा फूँक रहा हूँ,
उस अधजली सिगरेट को। 

कुछ वक़्त हो चला है,
फूँकते-फूँकते
धूम्र-अग्नि से बना 
क्षणिक मिश्रण वह। 

डगमगा रहे हैं पाए 
कुर्सी के 
बैठा हूँ जिसपर,
कारण वाज़िब है ! 

तीन टाँगों वाली,वह कुर्सी 
बैठकर सोचता हूँ मैं,
जीवन के वो हसीन पल !
फेरता हुआ पकी दाढ़ी पर 
हाथ अपने। 

उखाड़ता हूँ,रह-रहकर 
कुछ बाल पके-से 
छुपाने हेतु,
अपने उम्र की नज़ाकत !
मरते थे दुनियावाले जिसपर। 

तब बात भी कुछ और थी 
उस कुर्सी की। .... 

हिलती नहीं थी इतनी,
सिगरेट के प्रत्येक कश पर 
ज़ाहिर है !.... 

रहे होंगे 
चार पाए उसके 
जीवित !
मेरी जिंदगी की तरह..... ।  

( निराशा के भंवर में फँसा मैं ! )


'एकलव्य' 

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