ख़त्म करो !
हाँ सखी ! मैंने तन बेचा है।
दिल्ली की उन सड़कों पर
अपना कलुषित मन बेचा है।
हाँ सखी ! मैंने तन बेचा है।.......
गुड़-गुड़ करते इस उदरपूर्ति को,
ठिठुरन-सी सर्दी रातों में
मिथ्या चादर-सा स्वप्न लिए
मोटों से पानी खींचा है।
हाँ सखी ! मैंने तन बेचा है।
दिल्ली की उन सड़कों पर
अपना कलुषित मन बेचा है।
हाँ सखी ! मैंने तन बेचा है।.......
बिन ब्याहे श्रृंगार किया
हाँ सखी ! मैंने तन बेचा है।.......
बिन ब्याहे श्रृंगार किया
सारे सपनों को पार किया
विक्राल नहीं थे ! क्षणिक स्वप्न
बस दो जून की रोटी को,
उनको आडम्बर बेचा है।
हाँ सखी ! मैंने तन बेचा है।
दिल्ली की उन सड़कों पर अपना कलुषित मन बेचा है।
हाँ सखी ! मैंने तन बेचा है।.......
राजधानी न्याय की
नई दिल्ली !
कहते-कहते मैं रोती हूँ।
सीवर का पानी मुँह भरके
तन को ठंडक मैं देती हूँ।
अन्याय की चौखट पर मैंने,
यूँ न्याय को बिकते देखा है।
हाँ सखी ! मैंने तन बेचा है।
दिल्ली की उन सड़कों पर
अपना कलुषित मन बेचा है।
हाँ सखी ! मैंने तन बेचा है।.......
नारी-शक्ति के ज़ुमले दिए
सरकारें आनी-जानी हैं।
कल वे कुर्सी पर बैठे थे,
आज कोई यूँ ऐंठा है।
न्याय की लाख गुहार लिए
मैंने परिवर्तन बेचा है।
हाँ सखी ! मैंने तन बेचा है।
दिल्ली की उन सड़कों पर
अपना कलुषित मन बेचा है।
हाँ सखी ! मैंने तन बेचा है।.......
धर्मों की, क्या मैं बात करूँ !
उनके ईश्वर लाचार हुए,
पर-निज के मिथ्या जांतें में
खुद को पिसते
बरबस ही देखा है।
हाँ सखी ! मैंने तन बेचा है।
दिल्ली की उन सड़कों पर
अपना कलुषित मन बेचा है।
हाँ सखी ! मैंने तन बेचा है।.......
माँग रही हूँ .........
न्याय आज भी,
व्यंग भरी उन नज़रों से
करके प्रदर्शित, प्रत्यक्ष स्वयं को
उनको लड़ते देखा है।
हाँ सखी ! मैंने तन बेचा है।
दिल्ली की उन सड़कों पर अपना कलुषित मन बेचा है।
हाँ सखी ! मैंने तन बेचा है।.......
बहुत हुईं अन्याय की बातें
ठंडी-सी,अब न्याय की बातें
स्वप्न सही,परन्तु,लेकिन ......
स्वयं को उड़ते देखा है....... !
हाँ सखी ! मैंने तन बेचा है।
दिल्ली की उन सड़कों पर
अपना कलुषित मन बेचा है।
हाँ सखी ! मैंने तन बेचा है।.......
(प्रस्तुत 'रचना 'मेरे तीन वर्ष विद्यार्थी के रूप में दिल्ली प्रवास के दौरान हुए सत्य अनुभवों पर आधारित है। )
'एकलव्य'
छायाचित्र स्रोत : साभार गूगल
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