रविवार, 14 जनवरी 2018

जीवित स्वप्न !

 जीवित स्वप्न !


चाँद के भी पार होंगे 
घर कई !
देखता हूँ रात में 
मंज़र कई 

चाँदी के दरवाज़े 
बुलायेंगे मुझे 
ओ मुसाफ़िर ! देख ले 
हलचल नई 

वायु के झोंकों से 
खुलेंगी खिड़कियाँ जो 
स्वर्ण की !
पूर्ण होंगी, स्वप्न की वो तारीख़ें 
अपूर्ण सी ! जीवन में 
बनकर रह गईं। 

चाँद के भी पार होंगे 
घर कई !

सूख सी रोटी गई है 
थाल में 
उम्मीद की गर्मियों से 
ताज़ी हो गईं। 

देखता हूँ रात में 
मंज़र कई 
चाँद के भी पार होंगे 
घर कई !


"एकलव्य" 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें