जीवित स्वप्न !
चाँद के भी पार होंगे
घर कई !
देखता हूँ रात में
मंज़र कई
चाँदी के दरवाज़े
बुलायेंगे मुझे
ओ मुसाफ़िर ! देख ले
हलचल नई
वायु के झोंकों से
खुलेंगी खिड़कियाँ जो
स्वर्ण की !
पूर्ण होंगी, स्वप्न की वो तारीख़ें
अपूर्ण सी ! जीवन में
बनकर रह गईं।
चाँद के भी पार होंगे
घर कई !
सूख सी रोटी गई है
थाल में
उम्मीद की गर्मियों से
ताज़ी हो गईं।
देखता हूँ रात में
मंज़र कई
चाँद के भी पार होंगे
घर कई !
"एकलव्य"
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें