"फिर वह तोड़ती पत्थर"
वह तोड़ती पत्थर
आज फिर से खोजता हूँ
'इलाहाबाद' के पथ पर
दृष्टि परिवर्तित हुई
केवल देखने में
दर्द बयाँ करते
हाथों पर पड़े छाले
फटी साड़ी में लिपटी
अस्मिता छुपाती
छेनी -हथौड़ी लिए
वही हाथों में,
दम भर
प्रहार कर
वह तोड़ती पत्थर
आज फिर से खोजता हूँ
इलाहाबाद के पथ पर
परिवर्तित स्थान हुआ
इलाहाबाद से प्रस्थान हुआ
शेष नहीं वह पथ
जिस पर
तोडूं मैं पत्थर
अब तोड़ने लगी हूँ
जिस्मों को
उनकी फ़रमाईशों से
भरते नहीं थे पेट
उन पत्थरों की तोड़ाई से
अंतर शेष है केवल
कल तक तोड़ती थी
बेजान से उन पत्थरों को
अब तोड़ते हैं वे मुझे
निर्जीव सा
पत्थर समझकर
वह तोड़ती पत्थर
आज फिर से खोजता हूँ
इलाहाबाद के पथ पर
कोठे पर बैठी
फ़ब्तियाँ सहती हुई
समाज की कुरीतियों से
जख़्मी मगर
कुचली जाती
लज्जा मेरी
शामों -पहर
गिरते नहीं हैं
अश्रु मेरे
यह सोचकर
कल तक
तोड़ती पत्थर
उसी इलाहाबाद के पथ पर
जहाँ 'महाप्राण' छोड़ आए
मुझको सिसकता देखकर
सत्य ही है आज
मैं तोड़ती नहीं
पत्थर
उस दोपहरी में
तपते सड़कों पर
किन्तु जलती
आज भी हूँ
अपनी हालत
देखकर
हाँ ! मैं
तोड़ती थी
पत्थर
जिसे तूँ खोजता है
आज
इलाहाबाद के
पथ पर
वह तोड़ती पत्थर
आज फिर से खोजता हूँ
इलाहाबाद के पथ पर
( उन मंज़िलों के इंतज़ार ने ,कद मेरा छोटा किया )
प्रश्न है "महाप्राण" से
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