क्या करूँगा ! ये ज़माना रुख़्सत करेगा
चस्पा करेगा गालियाँ मुझपर हज़ारों।
कुछ कह सुनायेंगे, तू बड़ा ज़ालिम था पगले !
कुछ होके पागल याद में,नाचा करेंगे।
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मैं जा रहा हूँ ज़िंदगी
तूँ लौट आ !
गा रहा हूँ गीत जीवन
धुन बना !
मर रहा हूँ
मैं जो प्रतिक्षण
दोष मेरा
इल्तिज़ा तुझसे है बाक़ी
मान जा !
कुछ फूँकते शहनाईयाँ
क़ब्र पर मेरे,
नापसंद यह धुन मुझे
अब क्या करूँ ?
कहकर विदाई दे रहे
अंतिम यहाँ।
⧫
सोया पड़ा हूँ
देखकर
चिल्ला रही माँ।
मिन्नतें कर-करके हारी
फुसला रही माँ।
लाल उठ जा ! भोर हुई
बतला रही माँ।
देर तक सोना नहीं !
समझा रही माँ।
पर क्या करूँ !
अशक्त-सा
मैं हूँ पड़ा।
चादर ओढ़ाते देखकर
घबरा रही माँ।
मुझको लिटाते, सोचकर
गंगा बहा रही माँ।
बाँस की तख़्ती पर पसरा
तकिया लगा रही माँ।
चार कांधे तैयार हैं
ढोने को मुझे हो नग्न से !
खींच-खींच तख़्ती मेरी
बिठा रही माँ।
जूठे पड़े हैं बर्तनों के ढेर-से
आज ख़ुश हूँ देखकर
क्यूँ रो रही माँ ?
⧫
वक़्त आ गया है,चलने का मेरे
छोड़ माँ ! तख़्ती मेरी
फिर लौट आने के लिए।
सोच ले ! तूँ फिर झुलाएगी मुझे
डोरियों में हाँथ बाँधे,स्वप्न-सा।
⧫
मैं फिर से मुँह में भरकर माटी खाऊँगा।
भागेगी मेरे पीछे तूँ बन पगली-सी
दीवारों की ओट में छिप जाऊँगा।
रोने का नाटक करेगी, झूठी तूँ
मोम-सा हृदय मैं पिघलाऊँगा।
चिपकाऊँगा नन्ही उँगलियाँ,नेत्रों पर तेरे
पूछूँगा ! मैं कौन हूँ ? बतलाऊँगा।
आँगन में पुनः मैं
लाल बनकर आऊँगा।
'एकलव्य'
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