स्वीकार करता हूँ मानव संरचना कोशिका रूपी एक सूक्ष्म इकाई मात्र से निर्मित हुई है और यह भी स्वीकार्य है जिसपर मुख्य अधिकार हमारे विक्राल शरीर का है किन्तु यह भी सारभौमिक सत्य है कोशिका रूपी ये इकाई ही हमारे विक्राल शरीर का मूलभूत आधार है जिस प्रकार हमारे राष्ट्र का मूलभूत आधार 'किसान' ! परन्तु आज उसी अन्नदाता की अनदेखी देश कर रहा है जो न्यायोचित नही,भविष्य में इसके विध्वंसक परिणाम होना तय है यदि हम नहीं चेते ! उस ईश्वररूपी संसार पालक को उसका हक़ नहीं दिया ! देश अपनी बर्बादी का स्वयं जिम्मेदार होगा। धन्यवाद
"एकलव्य"
रे ! मानव
तूँ भूल रहा
क्यूँ ? स्वप्नों में
झूल रहा
ब्रह्माण्ड जो तेरा
रचते हैं
पृथ्वी की काया
गढ़ते हैं !
सम्मान, तूँ उनका
तौल रहा
रे ! मानव
तूँ भूल रहा
क्यूँ ? स्वप्नों में
झूल रहा
मृदा स्वर्ण ! बनायें
कण से
फल जो हल का
लगायें ! तल में
पाषाण खोद ! उठायें
कर से
क्यूँ ? उनका हक़
छीन रहा
जीवन है, उनका
दीन बना
रे ! मानव
तूँ भूल रहा
क्यूँ ? स्वप्नों में
झूल रहा
पाता चैन तूँ
चार-चौबारी
वे घूमें हैं !
क्यांरी-क्यांरी
खड्ग पहन तूं
चला ! शौक़ से
मूँछ ऐंठता ! बड़े
रौब से
वस्त्र नहीं, उनके
तन लगते
नग्न पाँव ना
चप्पल सजते
रे ! मानव
तूँ भूल रहा
क्यूँ ? स्वप्नों में
झूल रहा
सांय-प्रातः तूँ
दीप जलाये
छप्पन भोग
पत्थर को लगाए
विश्व पुरोहित स्वयं
कहाए !
नहीं अन्नोत्पत्ति
क्यूँ ? दायित्व तुम्हारा
मिथ्या ज्ञान तूँ , व्यर्थ
बघारे !
बता नीच उन्हें
बारी-बारी
स्वयं उच्च
बना ! बैठा है
मृदा धूषित
उनकी लाचारी
रे ! मानव
तूँ भूल रहा
क्यूँ ? स्वप्नों में
झूल रहा
जाग ! तनिक
तूँ, जग निर्माता
लगा गले ! जो
अन्न का दाता
दे ! सम्मान, जो
हक़ उनका है
बना उनको ही
भाग्य विधाता !
नहीं काम,आयेंगे तेरे
वेद ! पुराण,क़ुरान व गीता
जब क्षुधा,उदर में
नाचेगी !
बन जाएगा ! क्षण में
माटी, आह ! जो
उनकी जागेगी !
रे ! मानव
तूँ भूल रहा
क्यूँ ? स्वप्नों में
झूल रहा
"एकलव्य"
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