मैं प्रश्न पूछता
अक़्सर !
न्याय की वेदी
पर चढ़कर !
लज्ज़ा तनिक
न तुझको
हाथ रखे है !
सिर पर
मैं रंज सदैव ही
करता
मानुष स्वयं हूँ
कहकर
मानुष स्वयं हूँ
कहकर
लाशों के ढेर पे
बैठा
बन ! निर्लज्ज़
तूँ मरघट
स्वर चीखतीं ! हरदम
मेरे श्रवण से होकर
हिम सा ! द्रवित
हृदय होता है
शोक की
शोक की
ऊष्मा पाकर
मैं प्रश्न पूछता
अक़्सर !
न्याय की वेदी
पर चढ़कर !
सुनकर ! अनसुनी
करता
क्यूँ ? आवेश में
आकर
सुन ले ! नश्वर
ओ ! मानव
अंत भी तेरा
निश्चित
काल समीप है
तेरे
बन ! छाया सा
दानव
जो आज हैं
चीथड़ों में लिपटे
कल वे भी
मारे जाएंगे !
तूँ राजवस्त्र ! पहनता
वे तुझको भी
दफ़नायेंगे !
तूँ क्यूँ ? माटी से
बचता
कलंक है माटी
कहकर
कलंकित होगा
पवित्र ! शरीर
इसी कलंक में
मिलकर
मैं प्रश्न पूछता
अक़्सर !
न्याय की वेदी
पर चढ़कर !
पाषाण बिछेंगे ! तुमपर
सिर से छाती पर
होकर
पशु रौंदेंगे ! तुझको
पथ सामान्य
समझकर
घास उगेंगे ! तुझपर
मेरा डेरा है
कहकर
संसार करेगा ! विस्मृत
कटु इतिहास
समझकर
पीड़ित तुझको ही
कोसेंगे !
घूँटें जल की
पी-पीकर
मैं भी गुजरूंगा ! तेरी
सूनी गलियों से
होकर
मुस्कान के व्यंग
चलाऊँगा ! तेरे
कर्मों पर
हँसकर
मैं प्रश्न पूछता
अक़्सर !
न्याय की वेदी
पर चढ़कर !
"एकलव्य"
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