गा रहीं हैं,सूनी सड़कें
ओ ! पथिक
तूँ लौट आ
भ्रम में क्यूँ ? सपनें है बुनता
नींद से ख़ुद को जगा
प्रतिक्षण प्रशंसा स्वयं लूटे
मिथ्या ही राजा बना
चरणों की , तूँ धूल है
सत्य विस्मृत कर चला
क्षणभर की है ये रौशनी
रात्रि में है दिन दिखे
माया मिली ये रात्रि है
जिसमें आकर,जा फँसा
ललाट पे होकर खींची
जीवन की कटु सच्चाईयाँ
पोंछना तूँ व्यर्थ चाहे
भाग्य की अंगड़ाईयाँ
सड़क से होती शुरू
अंत होंगी सड़क पे
जन्म से पीछा छुड़ाता
मृत्यु ही परछाईयाँ
रुक पथिक ! मत जा उधर
नहीं कोई, तेरा यहाँ
साक्षात्कार सत्य से करातीं
तेरी ये परेशानियाँ
महल हैं, दिखावे की ख़ातिर
पराये वो, तेरे नहीं
भूलने का प्रयत्न करता
अपनी अनुपम झोपड़ी
बच्चे भूखे तेरे भले हैं
स्नेह से बुलाते अभी
चूल्हे पर भोजन बनाती
प्यारी तेरी, अर्धांगिनी
खोज क्यूँ ? जीवन की करता
अंत है तेरा यही,
गा रहीं हैं,सूनी सड़कें
ओ ! पथिक
तूँ लौट आ
भ्रम में क्यूँ ? सपनें है बुनता
नींद से ख़ुद को जगा .......
"एकलव्य"
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