शुक्रवार, 30 नवंबर 2018

उड़ जा रे ! मन दूर कहीं



उड़ जा रे ! मन दूर कहीं 
जहाँ न हों,धर्म की बेड़ियाँ 
स्वास्तिक धर्म ही मानव कड़ियाँ 
बना बसेरा ! रैन वहीं 

उड़ जा रे ! मन दूर कहीं ...  

श्वास भरे ! निर्मल समीर से 
विद्वेष रहित हो,द्वेष विहीन 
शुद्ध करे जो आत्मचरित्र 
बस तूँ जाकर ! चैन वहीं    

 उड़ जा रे ! मन दूर कहीं ...  

नवल ज्योति हो, नवप्रभात 
आत्मप्रस्तुति,कर सनात !
प्राप्त तुझे हो सत्य ज्ञान   
बुद्धरूपी ब्रह्माण्ड वहीं 

उड़ जा रे ! मन दूर कहीं ...  

कर स्पर्श करें जो नदियाँ
हृदय आनंदित,भाव-विभोर 
नभ संगिनी धरा मिली हो 
और मिलें हों  क्षितिज वहीं 

 उड़ जा रे ! मन दूर कहीं ...   

निष्पाप खग,प्राणी हों सुन्दर 
स्वर जो निकले,आत्मतृप्ति हो 
विस्मृत हों क्षण पीड़ा के 
खोज ! दिव्य स्थान कहीं 

उड़ जा रे ! मन दूर कहीं ...   

( अक्षय गौरव पत्रिका में प्रकाशित ) 


                                                                       'एकलव्य'