आपका स्वागत है।

मंगलवार, 2 मई 2017

"देख ! वे आ रहें हैं''

पाए हिलनें लगे !
सिंहासनों के,
गड़गड़ाहट हो रही
कदमों से तेरे,


देख ! वे आ रहें हैं........



सौतन निद्रा जा रही

चक्षु से तेरे,
हृदय में सुगबुगाहट
हो रही,


देख ! वे आ रहें हैं........



भृकुटि तनी है ! तेरी

कुछ पक रहा,
आने से उनके
कुछ जल रहा
मनमाने से उनके,


देख ! वे आ रहें हैं........



वे नोंचकर ! खाने लगे

लिपटे चीथड़ों में
अरमान सारे,
पी रहें ! वो लहु तुम्हारे
ग़ैरत जिसमें, है मिली
फुसला रहें !


देख ! वे आ रहें हैं........



धूल-धूषित कर दिया

तुझमें बची जो अस्मिता
चौराहों पे बैठे
खिल्ली उड़ा रहें !


देख ! वे आ रहें हैं........



जीवित ही तुझको

मृत किया !
मृत हुए, संसार में
लानतें भिजवा रहें !


देख ! वे आ रहें हैं........



मृत्यु शैय्या,तेरी सजी

फूल वो बरसा रहें !
झूठ के कांधों पे रखकर
अर्थी तेरी, उठा रहें !


देख ! वे आ रहें हैं........



कर रहें ! विलाप मिथ्या

देखकर तेरी ये हालत
ज्ञात ! उनको नोंचना
क्षत-विक्षत शरीर को
गिद्ध सा मंडरा रहें !


देख ! वे आ रहें हैं........




"एकलव्य"  
    


कोई टिप्पणी नहीं: