गुरुवार, 2 मार्च 2017

"परिवर्तन"


                                                          "परिवर्तन"                              


युग निर्माण की ,तूं है दस्तक़ 
अंत जहाँ है ,तूं परिवर्तन
सदियां बीतें ,आये सदियां 
बदले चेहरे ,बदले दुनियां ,

कहीं उजड़ते कारवां के मेले 
बसती है ,बस्ती कहीं 
बदले ना सिंहासन के पाये 
लाखों बदले सिंह वहीं ,

आशियां कई ,खण्डहर बने 
हुए खण्डहर ,आशियां 
गरजतीं चींखें दबतीं गईं 
दबतीं चींखें ,गर्जना ,

काल-कलवित ,कुछ हुए 
कुछ हुए ,पल्लवित अभी 
एक जीवन किलकारियाँ करता 
तोड़ता हो दम कोई ,

मेरे लिये हैं ,एक समान 
महल हो या झोपड़ी 
मेरा पहिया ,यूँ ही चलता 
धूप हो या चाँदनी ,

अज्ञान का पुतला बना 
देखता मानव वहीं 
कहता ,स्थिर बिम्ब हूँ 
विश्व की तक़दीर हूँ ,

आग़ की लपटों में लिपटा 
ख़ुद की मैं ,तक़दीर हूँ 
एक स्थाई बुलबुला 
मैं अचल और धीर हूँ ,

पर समय के हाँथ लिपटा 
मैं तो बस ,एक डोर हूँ 
इशारों पे हूँ ,नाचता 
पुतली सा मैं ,शेर हूँ। ........ 


     "एकलव्य" 






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