"गिर जायेंगे,ये ढेर बन"
"गिर जायेंगे,ये ढेर बन" |
इन आँसुओं से सींच दूँ मैं
हो कोई सपना अगर
थाम लूँ,मैं बाजुओं में
हो कोई अपना मग़र,
आशायें धूमिल हों चुकीं जो
आँखों में थीं,तैरतीं
गिर जायें बनके,गम की बूंदे
सजल चक्षु,हो मगर
चाहता हूँ,मैं भी उड़ना
पंखों के,दम पे मगर
दिख जाये कोई रास्ता
गंतव्य सत्य का, हो अगर
रोना नहीं मैं चाहता
भावनाओं के,वशीभूत बन
माया में लिपटी ज़िंदगी
ढूंढे खुशी क्यों !हर नगर,
सपनें खड़ें हैं,रेत पर
ना जानें,क्या ये सोचकर
ज्ञाता नहीं,मैं सत्य का
गिर जायेंगे,ये ढेर बन।.....गिर जायेंगे,ये ढेर बन।.....
"एकलव्य"
"मेरी रचनायें मेरे अंदर मचे अंतर्द्वंद का परिणाम हैं" |
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