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मंगलवार, 14 मार्च 2017

"तैरतीं ख़्वाहिशें" भाग 'चार'


                                              "तैरतीं ख़्वाहिशें" भाग 'चार' 
"तैरतीं ख़्वाहिशें"



कई रातें काटीं हैं,मैखानों में पीते-पीते 
मुक़्क़म्मल ज़िंदगी काट ली,ज़िंदगी जीते-जीते,

आधा सा भरा वो ग्लास,पूरा लगता था 
अज़नबी सा कोई तरन्नुम,अपना सा लगता था,

रात की वो काली स्याही,लगती थी डरावनी उनके बिना 
हवाओं के झोंकों से,दरवाज़े का खुलना-बंद होना 
दिल में ख़लबली सी मचाती थी,उनके बिना,

लाख कोशिशें  करता था,गीली माचिस से चिराग़े रौशन करना 
टकरा कर टूट जाया करतीं थीं तीलियाँ,दीवारों पे घिसते-घिसते,

दिल तो धड़कता है रोज़,अपनी मर्ज़ी से 
ज़िस्म का क्या करूँ,साथ नहीं देता इनका,अपनी ख़ुदग़र्जी से,

हर शाम ज़िंदगी मेरी,मौत को आवाज़ लगाती है बड़ी ही सादग़ी से 
मैं तो दूसरों के जलसे में शामिल हूँ,यह कहकर 
मौत भी मुँह मोड़ लेती है,बड़े अदायगी से,

और कहती है 
फ़िक्र न कर आऊँगी मैं ज़रूर,उस ज़िंदगी से मिलने 
जो तेरी होकर भी,तेरी न बन सकी,

हूँ तो मौत ही सही,रह जाऊँगी तेरे पास 
तेरी ज़िंदगी बनके,

साथ दूँगी तेरा क़यामत तक,जब तक दुनियां बाक़ी है
दूँगी हाथ तब तक तुझे,तेरी परछाईयाँ बाक़ी हैं .........  


                      "एकलव्य"
 "एकलव्य की प्यारी रचनायें" एक ह्रदयस्पर्शी हिंदी कविताओं एवं विचारों का संग्रह

  छाया चित्र स्रोत :https://pixabay.com/ 

                                

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