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शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2017

"झूठी आवाज़"


                                                                     "झूठी आवाज़"


छुप गई सच्चाई सारी ,कागज़ के इन टुकड़ों में
झूठ उभरकर आता केवल ,बनकर स्याह लक़ीरों में ,

दो पैसों का कागज़ बाक़ी ,रंग भरा बेईमानी का
सत्य का दिखता पता न कोई ,खेल बना तस्वीरों का ,

कल तक बना ,आवाज़ देश का
डंका पीटा करता था
बना आज़ धुन ,शहनाई का
मीठी नींद सुलाता है ,

पेज़ बना है ,तीन देश का
मदमस्ती में डूबा है
भूखा -नंगा शीर्षक देकर
देश को इन्होंने लूटा है ,

आवाज़ सत्य की ग़ुम सी लगती
ख़बरों के इन  मेलों में
दुःख की शाम हमेशा ढलती
चलचित्र के स्क्रीनों पे ,

हुआ क्रिकेट तो ,याद यूँ आया
मेरा देश है, ना है पराया
चंद शॉट में देश है पाया ,

विज्ञापनकर्ताओं की कैसी माया
कैसा अद्भुत खेल रचाया
सत्य को हमनें यूँ झुठलाया,

चकाचौंध ने जो भरमाया
केवल पन्नों में आनंद समाया।


                                "एकलव्य" 
                

                                       
छाया चित्र स्रोत: https://pixabay.com

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