"झूठी आवाज़"
छुप गई सच्चाई सारी ,कागज़ के इन टुकड़ों में
झूठ उभरकर आता केवल ,बनकर स्याह लक़ीरों में ,
दो पैसों का कागज़ बाक़ी ,रंग भरा बेईमानी का
सत्य का दिखता पता न कोई ,खेल बना तस्वीरों का ,
कल तक बना ,आवाज़ देश का
डंका पीटा करता था
बना आज़ धुन ,शहनाई का
मीठी नींद सुलाता है ,
पेज़ बना है ,तीन देश का
मदमस्ती में डूबा है
भूखा -नंगा शीर्षक देकर
देश को इन्होंने लूटा है ,
आवाज़ सत्य की ग़ुम सी लगती
ख़बरों के इन मेलों में
दुःख की शाम हमेशा ढलती
चलचित्र के स्क्रीनों पे ,
हुआ क्रिकेट तो ,याद यूँ आया
मेरा देश है, ना है पराया
चंद शॉट में देश है पाया ,
विज्ञापनकर्ताओं की कैसी माया
कैसा अद्भुत खेल रचाया
सत्य को हमनें यूँ झुठलाया,
चकाचौंध ने जो भरमाया
केवल पन्नों में आनंद समाया।
"एकलव्य"
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