"तैरतीं ख़्वाहिशें" भाग 'दो'
हर सुबह, एक नई सुबह आती थी मेरे जीवन में
लेकर चला जाता था , कुछ भद्दे से औज़ार
दिल में बस एक ही तमन्ना रहती थी
क्यूँ सोया नहीं ,मैं रात भर
क्यूँ रोया नहीं ,मैं आंस भर
क्या ये मेरे पेट की क्षुधा थी
या मेरे मन का बहम ,
जहन में हर पल उठती थी ,एक चुभती सी जुम्बिश
क्या मेरे बच्चे रात भर सोये थे ?
नहीं तो क्या मेरी संगिनी ,रात भर रोई थी ?
दिल में एक आश लिए आज भी
पैरों में बिना जूतियां पहने आज भी
घास भरे पगडंडियों पे
संभलते -संभलते ,फ़िसलते हुए आज भी ,
वज़नदार वो, लकड़ी का हल
जिसमें लगे थे ,लोहे के फाल
बूढ़े कंधों को ढोता हुआ
माथे पे उगे पसीनों को पोंछता हुआ
मैं चला जाता हूँ ,आज भी ! मैं चला जाता हूँ आज भी !
लोग शामों महफ़िल जमाते हैं ,शीशमहल की चार दीवारी में
मैं पसीना बहाता हूँ ,खेतों की क्यारी में ,
लोग घी से सनी रोटी तोड़ते हैं ,चारो -पहर
मेरे घर में बच्चे रोते हैं ,सुबह -दोपहर ,
लोग दूध से बनीं ,सेवईंयां खाते हैं
मेरी झोपड़ी में ,भूख़ से बच्चे चिल्लाते हैं ,
उनके महख़ाने में ,शामों -महफ़िल सजती है कहीं
सिसकियाँ लेते -लेते मेरे बच्चे सोते ,झोपड़ी में कहीं ,
घर के चौखट पे वो ,इंतज़ार करती है मेरा ,बस इतना सुनने को
आज कुछ ले आये क्या !आज कुछ ले आये क्या !
मैं हमेशा उससे कहता हूँ ,अल्लाह का करम होगा
एक दिन हम पर !
जब हम पेट भर खायेंगे ,दोनों-पहर ,
न जाने क्यूँ !मैं उसे झूठी दिलाशा देता हूँ
न जाने क्यूँ ! जिंदगी की नई परिभाषा देता हूँ ,
न जाने क्यूँ ! लोग अन्नदाता कहते हैं मुझे
न जाने क्यूँ !लोग फुसलाते हैं मुझे ,
दबती भूख को ,दबाते हुए
भरसक नींद ,लाते हुए
आँखों को मैं बंद करता हूँ
बस यही सपनें ,संजोता हूँ ,
शायद कल ,वो दिन होगा
मेरे बच्चे भी मुँह में ,रोटियाँ दबायेंगे
और दौड़े चले आयेंगे मेरे पास ,केवल इतना कहने
पिताजी हमारे भी दिन आ गये!पिताजी हमारे भी दिन आ गये!
"एकलव्य"
छाया चित्र स्रोत: https://pixabay.com
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