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शनिवार, 4 फ़रवरी 2017

"बंजारों सा"


                                       


                                                                "बंजारों सा"


राह चला था ,मंजिल को मैं
कोई न ऐसी राह दिखे
जिन राहों पे होकर गुजरा
उन पगडण्डी अब घास उगे,

कहीं हैं कांटे ,कहीं हैं कंकड़
राह कठिन है ,मन में हलचल
लहरें उठतीं ,मन के समंदर
आतीं डुबोने ,मुझको हरपल ,

मैं भी पागल बढ़ता जाऊँ
होश न मुझको बेचैनी हरपल
चट्टानों से लगे है ठोकर
पैरों से माथे पर होकर ,

एक पल लगे संभल जाऊँगा
पैरों तले फ़िसल जाऊँगा
लालच ऐसी मन को घेरे
बंजारों सा डाले डेरे ,

चाहूँ निकलना ,इस घेरे से
अपने -परायों के फेरे से
चक्कर ऐसा जान न पाऊँ
अपने को ही फसता पाऊँ ,

इच्छा ऐसी फिरता जाऊँ
मकड़जाल से निकल न पाऊँ
जीवनभर मैं बस पछताऊँ।।


                                 "एकलव्य "

                                                         


छाया चित्र स्रोत:https://pixabay.com

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