"मेरे आज़ाद शेर" भाग 'दो'
इल्म नहीं मुझको ,उन्हें पाउँगा या नहीं
प्यार हो गया ज़िंदगी से मुझको ,उनके यादों में कहीं ,
न जाने ये कैसी उलझन दिनों -रात रहती है, उनसे मिलने की
मिलूँ तो बढ़ने लगती हैं ,ना मिलूँ तो उलझने लगती हैं ,
आज़ तो चाय भी फ़ीकी लगने लगी है ,उनकी याद में
कड़क चाय पीने की आदत थी मुझको
फ़ीकी भी अच्छी लगने लगी है ,उनकी याद में ,
मज़लिस हुयें हैं रौशन ,बस उनकी याद में
चिराग़े रौशन करूँ कहाँ ,मौला बता, उनकी फ़रियाद में ,
महफ़िल की रौनक़ ,कभी अच्छी लगती थी वीरानों से भी
आज़ क़ब्रिस्तान की सुनीं गलियाँ ,पसंद आने लगीं हैं मुझको ,
दरिया दिल था कभी ,दुनियां के लिये
आप क्या दाख़िल हुए ,दुनिया ही सिमट गयी है ,मेरे ही वीरानों में ,
दो -चार चिरागें मैं भी जला लूँ ,मौला के उस चौख़ट पे
आज़ तो अपने को ही भूल बैठा ,कैसे आऊँ मालिक़ तेरे दर पे ,
आता हूँ ,फ़िर भी भरतीं हैं ,जाता हूँ फ़िर भी भरतीं हैं
आँसूं ही तो हैं ,कुछ ग़म में गिरतें हैं और कुछ ख़ुशी में ,
ख़्वाहिशें तो तब भी थीं ,जब आप न थे
आज़ भी ,बैठो हो पहलूँ में मेरे ,
तब तैरा करतीं थीं आँखों में ,सपनें बनकर
आज़ गिर आयीं हैं ,आँसूं बनकर आँखों से........
"एकलव्य "
छाया चित्र स्रोत:https://pixabay.com
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