"मैं मज़दूर हूँ ,मेरा क्या है "
बचपन में माँ -बाप ने पाला
बड़ा हुआ ख़ुद को संभाला
दुनिया की कुछ डगर कठिन थी
हँसकर मैंने इनको गुजरा ,
भरी दोपहर पत्थर तोडूं
रातों को मैं सड़क पे सोऊँ
जाड़ों में ना कोई ठिकाना
जला आग ,क़िस्मत पे रोऊँ ,
ये समाज धुत्कारे है मुझको
एक छोटा मज़दूर समझकर
जख़्म न देखे कोई मेरे
दुनिया का अभिशाप मानकर ,
करूँ बेग़ारी दुनियां भर के
कुछ रुपयों के एवज़ में
सहूँ सबकी बेरब्त बोलियाँ
एक रोटी की चाहत में ,
सुबह से लेकर शाम तक बैठूँ
दुनियाँ के बाज़ारों में
क़द्रदान मिल जाए कोई
गऱीबी की लाचारी में ,
भरी धूप में ख़ून जलाऊँ
पेट की क्षुधा मिटानें को
लोगों के मैं बोझ उठाऊँ
नया सवेरा लाने को ,
खुद बेघर हूँ मेरा क्या है
रात वही ,हर शाम नई
दो पैसे हाथों पे पाऊँ
जगे है मन में आस नई ,
जलीं रोटियाँ मन को भायें
नमक है छेड़े साज़ नई
तेल की बूंदें इनमें मिलाँऊं
खाकर लगे है राग नई ,
रातों को मैं गिनके बिताऊँ
कई वर्ष हो ,आस वही
मन ही मन खुश होता जाऊँ
नया सवेरा ,रात वही ,
जीवन तो कटता है मेरा
घासों के इस छप्पर में
महल न कोई मेरा घर है
नीला अम्बर ख़्वाब वही ,
दो पैसों में रोज़ हूँ बिकता
दुनियां के चौराहों पे
जिसे पसंद हो ,वो ले जाए
कुछ पैसों की क़ीमत पे ,
मैं मज़दूर हूँ ,मेरा क्या है
आना -जाना मेरा लगा है
कल दुनियां से जाऊँगा
याद किसी को न आऊँगा ,
बीती रातों की भाँति मैं
याद किया ना जाऊँगा
बस मज़दूर कहलाऊँगा …………………
"एकलव्य "
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