"आ गिरेंगी आत्मा पर"
आज मन है बोलता
दिल के चौखट खोलता
जो छिपी ,पर्दे में लिपटी
अनछुए जख्म ,कुरेदता ,
दर्द होता है जो छू लूँ
अनदिखे से मर्म कई
सन्नाटों में पसरी चीखें
सुनता नहीं क्यूँ बोल ना ,
याद है वो रातें काली
काली रातें थीं कभी
आज जो रौशन हुआ है
कल वही सूनी पड़ीं ,
जानता मैं ख़ुश हूँ केवल
क्षण भर दिखाने के लिए
फ़िर वहीं गहराईयाँ
धुँधली सी परछाइयाँ
बीते गमों की स्याहियाँ ,
आ गिरेंगी आत्मा पर
थोड़ा डराने के लिए.........
"एकलव्य"
1 टिप्पणी:
Nice one . Good way of presentation .
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