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गुरुवार, 29 जून 2017

"ख़ाली माटी की जमीं"

बदलते समाज में रिश्तों का मूल्य गिरता चला जा रहा है। बूढ़े माता-पिता बच्चों को बोझ  प्रतीत होने लगे हैं और हो भी क्यूँ न ? उनके किसी काम के जो नहीं रह गए ! हास् होती सम्बन्धों में संवेदनायें ,धन्यवाद। 
                                                                                                                                                  ''एकलव्य'' 

                                                                                                           
 बचपन था मेरा नासमझ
ले आया बद की रौशनी
एक ओर करता ग़म अंधेरा
उस ओर ख़ुश है रौशनी 

पाने को एक छोटी ख़ुशी
एक दौड़ लगती है कहीं
कुचले गये अरमान सारे
इस होड़ के रौ में वहीं 

चित्कारता मन भी कहे

 कब ख़तम ? ये खेल भी

जारी रहा बरसों तलक
बस करो ! अब अंत भी


जीता रहा गिन के नये

हर वर्ष को यह सोचकर
बाक़ी अभी है और भी
कल का सवेरा-दोपहर 


फ़िर से  हूँ कसता, मैं कमर

कुछ कर दिखाऊँ ! मैं नई
उठकर खड़ा हूँ, लांगने
मिल जाए कोई दुनियां नई 


तन पर पड़ीं हैं झुर्रियाँ

आँखें हैं पथराई हुईं
सामर्थ्य न मेरे पास है
क़दमों में लड़खड़ाहट भरी 


आगे अँधेरा घनघोर है

पास में दीपक नहीं
एक रौशनी की दरकार आज़
असहाय जीवन में कहीं 


ऑंखें खुलीं , बैठा हुआ

उस नीम की छाया तले
झूला था मैं बचपन तले
जिसकी टहनियों से लगे 


पत्ते नहीं अब शेष हैं

कुछ लकड़ियाँ अवशेष हैं !
अब तमन्ना, किसकी करूँ
बच गयें अब लेश हैं 

हूँ डोलता तन को झुकाये

सहारा हैं मेरी डंडियाँ
रोता हूँ बस यह सोचकर
कभी था तनकर मैं खड़ा 

धुत्कारते ! मुझको वही

पाला था जिनको प्यार से
हैं रुलाते मुझको वही
जिनकों समेटा बाँह में 


तिल -तिल बनाया मैंने वही

जो आशियां था प्यार का
जिसमें लगाये सपनें कई
वो शामियां बहार का 


आज़ जिनके छत वही

मेरे सर पे हैं नहीं
मौसमों के मार झेलूँ
रात वो भूली नहीं !


तन पर पड़ा कम्बल वही

जिसमें नये से छेद हैं
इनकों प्यार झोंकों से इतना
रोके इनकों हैं नहीं 


बूढ़े हाँथों से बनाया

मैंने एक छप्पर नई
बूढ़े मन को एक दिलाशा
सर पे है एक छत नई 


रात भर हूँ काँपता

कुछ सोचकर यूँ जागता
झूठे ही सपनें देखता
पल भर यूँ , दिल को सेंकता 


कल फिर होगा ,एक सवेरा नया

अपना भी होगा ,एक बसेरा नया 


रौशनी चमकती आयेगी

ज़िंदगी थोड़ी शर्मायेगी
होकर खड़ा ,तनकर यहाँ
दुनियां करूँगा ! मैं जवां 


आ गई है रौशनी ! अब मैं कहाँ ?

लगता है जैसे खो गया
आँखें खुलीं, पथरा गईं
हरक़त न कोई ,अब यहाँ 


कुछ लोग आयें हैं मेरे

महलों वाले इस छप्पर में
लिपटा रहा मैं रात भर
अरमानों के कम्बल में
फ़िरता रहा, मैं रात भर
वीरानों से जंगल में 


बाँधते हैं वो मुझे, दुधिया भरे पोशाक़ में

लादकर मुझको चले ,बस मिलाने राख़ में !


आज़ ख़ुश हूँ सोचकर

एक मिली दुनियां नई
आज़ हूँ ,कुछ ऐंठ कर
फ़िर शुरू एक नया सफ़र 


कितने नासमझ ये लोग हैं

रोते दिखावे के लिए
झूठे बनाते पुल नये 
रेत के हरदम कई 


पल में ये बह जायेंगे

समंदर के थपेड़ों से अभी
हाँथ कुछ ना पायेंगे
ख़ाली माटी की जमीं। .... .........ख़ाली माटी की जमीं। .... ..



"एकलव्य" 



शनिवार, 24 जून 2017

"मुट्ठियाँ बना ज़रा-ज़रा"

अंगुलियाँ समेट के तू , मुट्ठियाँ बना ज़रा -ज़रा
हवाओं को लपेट  के  तू ,  आंधियाँ बना -बना
लहू की  गर्मियों से तूं , मशाल तो जला -जला
जला दे ग़म के शामियां ,नई सुबह तो ला ज़रा
                                                               
अंगुलियाँ समेट के तू , मुट्ठियाँ बना ज़रा -ज़रा

भूल जा तूँ जिंदगी ,मौत को गले लगा
झूठ की जो लालसा ,मन से तू निकाल दे
सपनों के पुलिंदों को ,कदमों से ठोकर मार दे
क़िस्मत मिलेगी धूल में ,माथे से लगा ज़रा
                                                                                                
अंगुलियाँ समेट के तू , मुट्ठियाँ बना ज़रा -ज़रा

सोच मत तू है धरा ,पंख तो फैला ज़रा
उड़ जा आसमान में ,विश्वास से भरा -भरा
देख  मत  यूं  मुड़ के  तूं ,  लौटने के वास्ते
क़िस्मत को कर ले तू बुलंद ,कठिन हैं ये रास्ते
बना ले ख़ुद को क़ाबिले ,लोगों के मिसाल की
अमिट लक़ीर खींच दे ,ब्रहमांड में खरा -खरा
                                             
अंगुलियाँ समेट के तू , मुट्ठियाँ बना ज़रा -ज़रा

व्यक्तित्व बन पहचान की ,अपने को ज़रा -ज़रा
दुनियां गले लगाएगी ,कोटि -कोटि ,धरा - धरा
चक्षुएं   बिछाएगी ,यहाँ -वहां ,  जहाँ  -तहाँ
ईश्वर भी मुस्कुराएगा , देखकर तेरी अदा
वो भी सिर झुकायेगा ,देर ही सही ज़रा

अंगुलियाँ समेट के तू , मुट्ठियाँ बना ज़रा -ज़रा

                               "एकलव्य "     


                                           

शुक्रवार, 23 जून 2017

''पथ के रज''

गा रहीं हैं,सूनी सड़कें 
ओ ! पथिक 
तूँ लौट आ 
भ्रम में क्यूँ ? सपनें है बुनता 
नींद से ख़ुद को जगा 

प्रतिक्षण प्रशंसा स्वयं लूटे 
मिथ्या ही राजा बना 
चरणों की , तूँ धूल है  
सत्य विस्मृत कर चला 

क्षणभर की है ये रौशनी 
रात्रि में है दिन दिखे 
माया मिली ये रात्रि है 
जिसमें आकर,जा फँसा 

ललाट पे होकर खींची
जीवन की कटु सच्चाईयाँ 
पोंछना तूँ व्यर्थ चाहे 
भाग्य की अंगड़ाईयाँ 

सड़क से होती शुरू 
अंत होंगी सड़क पे 
जन्म से पीछा छुड़ाता 
मृत्यु ही परछाईयाँ 

रुक पथिक ! मत जा उधर 
नहीं कोई, तेरा यहाँ 
साक्षात्कार सत्य से करातीं 
तेरी ये परेशानियाँ 

महल हैं, दिखावे की ख़ातिर 
पराये वो, तेरे नहीं 
भूलने का प्रयत्न करता 
अपनी अनुपम झोपड़ी 

बच्चे भूखे तेरे भले हैं 
स्नेह से बुलाते अभी 
चूल्हे पर भोजन बनाती 
प्यारी तेरी, अर्धांगिनी
खोज क्यूँ ? जीवन की करता 
अंत है तेरा यही,    

 गा रहीं हैं,सूनी सड़कें 
ओ ! पथिक 
तूँ लौट आ 
भ्रम में क्यूँ ? सपनें है बुनता 
नींद से ख़ुद को जगा ....... 


"एकलव्य" 








  

शुक्रवार, 16 जून 2017

"न्याय की वेदी"

मैं प्रश्न पूछता 
अक़्सर !
न्याय की वेदी 
पर चढ़कर !
लज्ज़ा तनिक 
न तुझको 
हाथ रखे है !
सिर पर 

मैं रंज सदैव ही 
करता 
मानुष स्वयं हूँ 
कहकर  
लाशों के ढेर पे 
बैठा 
बन ! निर्लज्ज़ 
तूँ मरघट 

स्वर चीखतीं ! हरदम 
मेरे श्रवण से होकर 
हिम सा ! द्रवित 
हृदय होता है
 शोक की 
ऊष्मा पाकर 

मैं प्रश्न पूछता 
अक़्सर !
न्याय की वेदी 
पर चढ़कर !

सुनकर ! अनसुनी 
करता 
क्यूँ ? आवेश में 
आकर 

सुन ले ! नश्वर 
ओ ! मानव 
अंत भी तेरा 
निश्चित 
काल समीप है 
तेरे 
बन ! छाया सा 
दानव 

जो आज हैं 
चीथड़ों में लिपटे 
कल वे भी 
मारे जाएंगे !
तूँ राजवस्त्र ! पहनता 
वे तुझको भी 
दफ़नायेंगे !

तूँ क्यूँ ? माटी से 
बचता 
कलंक है माटी 
कहकर 
कलंकित होगा 
पवित्र ! शरीर 
इसी कलंक में 
मिलकर 

मैं प्रश्न पूछता 
अक़्सर !
न्याय की वेदी 
पर चढ़कर !

पाषाण बिछेंगे ! तुमपर 
सिर से छाती पर 
होकर 
पशु रौंदेंगे ! तुझको 
पथ सामान्य 
समझकर 
घास उगेंगे ! तुझपर 
मेरा डेरा है 
कहकर 
संसार करेगा ! विस्मृत 
कटु इतिहास 
समझकर 
पीड़ित तुझको ही 
कोसेंगे !
घूँटें जल की 
पी-पीकर 

मैं भी गुजरूंगा ! तेरी 
सूनी गलियों से 
होकर 
मुस्कान के व्यंग 
चलाऊँगा ! तेरे 
कर्मों पर 
हँसकर 

मैं प्रश्न पूछता 
अक़्सर !
न्याय की वेदी 
पर चढ़कर !



"एकलव्य" 

रविवार, 11 जून 2017

"कालनिर्माता"

स्वीकार करता हूँ मानव संरचना कोशिका रूपी एक सूक्ष्म इकाई मात्र से निर्मित हुई है और यह भी स्वीकार्य है जिसपर मुख्य अधिकार हमारे विक्राल शरीर का है किन्तु यह भी सारभौमिक सत्य है कोशिका रूपी ये इकाई ही हमारे विक्राल शरीर का मूलभूत आधार है जिस प्रकार हमारे राष्ट्र का मूलभूत आधार 'किसान' ! परन्तु  आज उसी अन्नदाता की अनदेखी देश कर रहा है जो न्यायोचित नही,भविष्य में इसके विध्वंसक परिणाम होना तय है यदि हम नहीं चेते ! उस ईश्वररूपी संसार पालक को उसका हक़ नहीं दिया ! देश अपनी बर्बादी का स्वयं जिम्मेदार होगा। धन्यवाद 

"एकलव्य" 


 रे ! मानव

तूँ भूल रहा
क्यूँ ? स्वप्नों में
झूल रहा
ब्रह्माण्ड जो तेरा
रचते हैं
पृथ्वी की काया
गढ़ते हैं !
सम्मान, तूँ उनका
तौल रहा

रे ! मानव
तूँ भूल रहा
क्यूँ ? स्वप्नों में
झूल रहा

मृदा स्वर्ण ! बनायें
कण से
फल जो हल का
लगायें ! तल में
पाषाण खोद ! उठायें
कर से
क्यूँ ? उनका हक़
छीन रहा
जीवन है, उनका
दीन बना

रे ! मानव
तूँ भूल रहा
क्यूँ ? स्वप्नों में
झूल रहा

पाता चैन तूँ
चार-चौबारी
वे घूमें हैं !
क्यांरी-क्यांरी 
खड्ग पहन तूं
चला ! शौक़ से
मूँछ ऐंठता ! बड़े
रौब से
वस्त्र नहीं, उनके
तन लगते
नग्न पाँव ना
चप्पल सजते

रे ! मानव
तूँ भूल रहा
क्यूँ ? स्वप्नों में
झूल रहा  

सांय-प्रातः तूँ 
दीप जलाये 
छप्पन भोग 
पत्थर को लगाए 
विश्व पुरोहित स्वयं 
कहाए !
नहीं अन्नोत्पत्ति 
क्यूँ ? दायित्व तुम्हारा 
मिथ्या ज्ञान तूँ , व्यर्थ 
बघारे  !
बता नीच उन्हें 
बारी-बारी 

स्वयं उच्च 
बना ! बैठा है 
मृदा धूषित 
उनकी लाचारी  

रे ! मानव
तूँ भूल रहा
क्यूँ ? स्वप्नों में
झूल रहा  

जाग ! तनिक 
तूँ, जग निर्माता 
लगा गले ! जो 
अन्न का दाता 
दे ! सम्मान, जो 
हक़ उनका है  
बना उनको ही 
भाग्य विधाता !

नहीं काम,आयेंगे तेरे 
वेद ! पुराण,क़ुरान व गीता 
जब क्षुधा,उदर में 
नाचेगी !
बन जाएगा ! क्षण में 
माटी, आह ! जो 
उनकी जागेगी !

रे ! मानव
तूँ भूल रहा
क्यूँ ? स्वप्नों में
झूल रहा  



"एकलव्य"