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रविवार, 16 सितंबर 2018

प्रकृति-'प्रीत'



चन्द्रपथिक-सा, ओ प्रियवर ! हौले-हौले मंडराता है .........   

निशाकलश छल-छल छलके 
जब बन चकोर तू गाता है। 

 चन्द्रपथिक-सा, ओ प्रियवर ! हौले-हौले मंडराता है .........    

भोर जा रही परदेस पिया 
रथ-रश्मि चढ़ तू आता है 
कुएँ पर घिरनी खींच रही 
तू मंद-मंद मुस्काता है। 

चन्द्रपथिक-सा, ओ प्रियवर ! हौले-हौले मंडराता है .........   

उड़ा रही माटी को मैं 
इन गोरी-गोरी बाँहों से 
माटी बनकर सम्मुख मेरे 
नित-नयन को क्यूँ भरमाता है !

चन्द्रपथिक-सा, ओ प्रियवर ! हौले-हौले मंडराता है .........   

माता-री मेरी बुला रही 
धुँएं से चूल्हा जला रही,
वेश धरन में नटखट है 
तू खाँसत-खाँसत अटकत है 
बन 'प्राणवायु का मीत' मेरे, नलियों में घुलता जाता है.......

चन्द्रपथिक-सा, ओ प्रियवर ! हौले-हौले मंडराता है .........    

हैं दरवज्जे कुछ 'नाद' बंधे 
बन पगहे सब साथ सजे 
क्षुधा लगी बारी-बारी 
चींखें सब आ री ! आ री ! 
चूनी-भूसी नद बोर रही 
पानी-पानी में घोर रही 
बन भूसा लिपटा माने ना !
ओ रे ! प्रियवर, तू जाने ना 
कर लाज-शरम ! सब देखत हैं 
आँखें मींचूँ, स्पर्श करे,ओ जुल्मी ! तू इठलाता है। 

चन्द्रपथिक-सा, ओ प्रियवर ! हौले-हौले मंडराता है .........   

पगडण्डी पर चलती जाती 
थोड़ी गिरती और लहराती 
पीले सरसों के बौंरों से 
हँसती हूँ, तनिक लजा जाती
भरसक प्रयत्न तू करता है,कदमों में मेरे आ जाए 
बन राह में छोटे कंकड़-सा,कोमल-से हृदय समा जाए 
दृग-भ्रमित मैं क्षणभर हो जाऊँ !
नित वैरी जाप लगाता है। 

चन्द्रपथिक-सा, ओ प्रियवर ! हौले-हौले मंडराता है ......... 

हल्दी,चंदन का बन उबटन 
देह लगाएं संग सखी 
मलती भर हाथों से पांव मेरे 
तू प्रीत-सा चिपका जाता है 
वस्त्र ब्याह के जुगनू-सा, टिम-टिम चमके जाता है। 

चन्द्रपथिक-सा, ओ प्रियवर ! हौले-हौले मंडराता है .........   

साथ नहीं अब भी छोड़ा 
कर काँधे से मुझको जोड़ा 
उठा रहा परदेसी-सा 
और डोल रहा थोड़ा-थोड़ा 
मैं झांक रही डोली चढ़कर,नित परिचित-सी बाबुल के घर 
मन आह्लादित भी ! बन अश्क गिरे ,चंचल स्मृतियों-सा आज बहे 
नग्न पांव उठा डोली ,ओ पगला ! चलता जाता है .......

चन्द्रपथिक-सा, ओ प्रियवर ! हौले-हौले मंडराता है .........   

अब सजना से ही प्रीत भई 
चकिया में पिस-पिस रेत हुई 
जीवन अखरी-सा दाल हुआ 
कब प्रेमनगर कंगाल हुआ !

नित सास-ससुर अब डांटत हैं,मोरे सजना मोहे भांपत हैं 
मैं दासी रह गई 'पर' आँगन, खूँटे में क्षण-क्षण बाँधत हैं 
खूँटे में बंधा ओ रस्सी-सा ! मुझको तू बड़ा नचाता है।

चन्द्रपथिक-सा, ओ प्रियवर ! हौले-हौले मंडराता है .........   

है गमन कर रहा यौवन मेरा 
तू ठहरा-ठहरा देख रहा 
'प्रतिलिपि' अब दौड़ें मेरी
जीवन समीप अब खेद रहा,
जर्जर हुआ बदन मेरा,काया सर्पिल-सी डोल रही 
श्रीमुख से अब ना दर्द बहे ,मैं मन ही मन में बोल रही...... 

है कंठ सूखता,प्यास लगी 
दे-दे पानी कोई ,आस लगी 
तू शीतल-शीतल बैठा है,चुलबुल पानी के मटके-सा 
मैं तरस रहीं हूँ बूँदों को, बौरा तू रिसता जाता है .......    

चन्द्रपथिक-सा, ओ प्रियवर ! हौले-हौले मंडराता है .........   

पहले सजना 'यमदेश' गए 
अब बालक भी परदेस गए 
मैं अधमरी खाट पड़ी पगली 
चलने से मृत्यु लाख भली 

कर खिसक-खिसककर उठती हूँ ,गिरती एकांत संभलती हूँ 
ताने मारे वो प्रेमपथिक ,बन श्याम मेघ छिप जाता है। 

चन्द्रपथिक-सा, ओ प्रियवर ! हौले-हौले मंडराता है .........   

अब चार टाँग की शैय्या पर
लेटी हूँ जैसे रात धवल 
दुल्हन थी कभी 
अब शव बनकर !

ढकता जाता उसी पगले से, मेरी काया लाचार हुई 
एक दिन था बचती फिरती थी,उस परदेसी के साथ चली...... 

पलभर में धूल हुआ यौवन ,कभी पल-पल जो इठलाता था 
स्वर शहनाई-सा शांत हुआ, जो 'मधुकर' बगिया गाता था 

नदिया में रेत विलीन हुआ ,क्षणभर में गहराई जाकर 
'प्रेमपथिक' आह्लादित है,मुझको खुद में खुद से पाकर 
आत्मतृप्ति की खुशियों  से ,वो लहर-लहर लहराता है 

चन्द्रपथिक-सा, ओ प्रियवर ! हौले-हौले मंडराता है .........   


'एकलव्य'                   ( प्रकाशित : वर्ष: 3, अंक 46, अक्टूबर(प्रथम), 2018 साहित्यसुधा  )



अखरी = पत्थर की चकरी में पिसी दाल 
नाद = मवेशियों के खाने का बर्तन   
पगहा = मवेशियों को बांधे जाने वाली रस्सी 
   छायाचित्र : साभार गूगल