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शुक्रवार, 16 जून 2017

"न्याय की वेदी"

मैं प्रश्न पूछता 
अक़्सर !
न्याय की वेदी 
पर चढ़कर !
लज्ज़ा तनिक 
न तुझको 
हाथ रखे है !
सिर पर 

मैं रंज सदैव ही 
करता 
मानुष स्वयं हूँ 
कहकर  
लाशों के ढेर पे 
बैठा 
बन ! निर्लज्ज़ 
तूँ मरघट 

स्वर चीखतीं ! हरदम 
मेरे श्रवण से होकर 
हिम सा ! द्रवित 
हृदय होता है
 शोक की 
ऊष्मा पाकर 

मैं प्रश्न पूछता 
अक़्सर !
न्याय की वेदी 
पर चढ़कर !

सुनकर ! अनसुनी 
करता 
क्यूँ ? आवेश में 
आकर 

सुन ले ! नश्वर 
ओ ! मानव 
अंत भी तेरा 
निश्चित 
काल समीप है 
तेरे 
बन ! छाया सा 
दानव 

जो आज हैं 
चीथड़ों में लिपटे 
कल वे भी 
मारे जाएंगे !
तूँ राजवस्त्र ! पहनता 
वे तुझको भी 
दफ़नायेंगे !

तूँ क्यूँ ? माटी से 
बचता 
कलंक है माटी 
कहकर 
कलंकित होगा 
पवित्र ! शरीर 
इसी कलंक में 
मिलकर 

मैं प्रश्न पूछता 
अक़्सर !
न्याय की वेदी 
पर चढ़कर !

पाषाण बिछेंगे ! तुमपर 
सिर से छाती पर 
होकर 
पशु रौंदेंगे ! तुझको 
पथ सामान्य 
समझकर 
घास उगेंगे ! तुझपर 
मेरा डेरा है 
कहकर 
संसार करेगा ! विस्मृत 
कटु इतिहास 
समझकर 
पीड़ित तुझको ही 
कोसेंगे !
घूँटें जल की 
पी-पीकर 

मैं भी गुजरूंगा ! तेरी 
सूनी गलियों से 
होकर 
मुस्कान के व्यंग 
चलाऊँगा ! तेरे 
कर्मों पर 
हँसकर 

मैं प्रश्न पूछता 
अक़्सर !
न्याय की वेदी 
पर चढ़कर !



"एकलव्य" 

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