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शनिवार, 4 फ़रवरी 2017

'जिंदगी एक कहानी' "ग़ज़ल"




                                                             'जिंदगी एक कहानी'  "ग़ज़ल"



  जिंदगी एक कहानी ,बनकर गुज़री
बनकर कई रास्ते ,धुंधले नज़र आते थें।

कब तलक मंज़िलें पाऊँगा बता दे मुझको
पांव दुखने लगें हैं मेरे ,चलते -चलते।

टूटता पुल मुझे दिखने लगा है ,ख़्वाबों का
ख़ामी कुछ रेत में थी ,मालिक़ ने जिसे बख़्शा था।

कई मोड़ आये थे ज़िंदगी के चौराहों पे
मसला ये था चुनू किस राह को मंज़िल तक पहुँचने में।

कहने को हर रास्ते ख़त्म होते थे किसी न किसी मंज़िल को
दिल से एक सदा आती थी हरपल ,तूँ सोचता बहुत है ,चलने से पहले।

दिल को बार -बार लगता था ,मंज़िल मिल ही जाएगी एक दिन
फ़िर भी क़दम चलते थे मेरे ,कुछ ठिठक -ठिठक कर।

पा गया हूँ मंज़िल आज़, मीलों चलने के बाद
ना जाने क़दम यूँ मेरे ,फ़िर से पीछे हटते हैं।

इल्म हुआ मुझको अब ,लाखों सपनें देखने के बाद
कमीं  थी मुझमें कहीं ,अधूरी ख़्वाहिशें संजोनें के बाद।



                       "एकलव्य "  
                                     

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