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रविवार, 12 फ़रवरी 2017

तैरतीं ख़्वाहिशें 'गज़ल '


                                                         

                                                                 तैरतीं ख़्वाहिशें  'गज़ल '



घर बनाया था मैंने रेंत के लाखों जतन से
सजाया था दरों -दिवार उसकी ,हज़ारों खुशियाँ समेट के ,

कई रातें बिताई थीं ,नींव की निग़रानी में
हज़ारों सपनें देखे थे ,जिसकी निगेहबानी में ,

दिल के एहसासों से ,रंगें थे दीवारें जिनकीं
किया चिराग़े रौशन ,जिनकी अँधेरी कोठऱी में हरपल ,

दबती क़दमों से आगाज़ करता था जिनकीं चार दीवारी में
कहीं ये ढह न जाये ,मेरे हलचल से ,

तरन्नुम भी मेरी गूँजतीं थीं ,हल्क़े आँहों की तरह
डरता था कहीं खंडहर न बन जाएं ,ये मेरे ख़्वाबों का महल ,

एक बार नज़र उठाकर देखता तो सही था ,अपने आशियानें को
मन ही मन मुस्करा उठता ,यह कहक़र
क्या हसीन नुमाइश लगाई है ,मैंने अपने महल के कोनों में
ख़ुदा भी मुस्कुराता होगा ,मेरे इस झूठे ज़न्नत को देखकर ,

इल्म न था एक मंज़र ऐसा भी आएगा ,मेरे ख़्वाबों में कभी
ख़ुद -ब-ख़ुद मिटा दूँगा , मैं अपने ही बैतुल्लाह को एक झटके में यूँ ,

न बचेगा एक भी ज़र्रा ,मेरे इस शामियानें में
दूर तलक बिख़री होगी ,खाक़ ही खाक़
और सनें होंगें मेरे हाँथ ,उसकी दीवारों की कालिख़ से ,

जिसकी तबाही का सबब मैं ख़ुद होऊँगा
न दूसरा क़ोई  .......
न दूसरा क़ोई .......
रह जायेंगें थोड़े अश्क़ ,बहरहाल बहानें क़ो ......



                               "एकलव्य "

                                                 
                                       

                                                         

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