अंगुलियाँ समेट के तू , मुट्ठियाँ बना ज़रा -ज़रा
हवाओं को लपेट के तू , आंधियाँ बना -बना
लहू की गर्मियों से तूं , मशाल तो जला -जला
जला दे ग़म के शामियां ,नई सुबह तो ला ज़रा
अंगुलियाँ समेट के तू , मुट्ठियाँ बना ज़रा -ज़रा
भूल जा तूँ जिंदगी ,मौत को गले लगा
झूठ की जो लालसा ,मन से तू निकाल दे
सपनों के पुलिंदों को ,कदमों से ठोकर मार दे
क़िस्मत मिलेगी धूल में ,माथे से लगा ज़रा
अंगुलियाँ समेट के तू , मुट्ठियाँ बना ज़रा -ज़रा
सोच मत तू है धरा ,पंख तो फैला ज़रा
उड़ जा आसमान में ,विश्वास से भरा -भरा
देख मत यूं मुड़ के तूं , लौटने के वास्ते
क़िस्मत को कर ले तू बुलंद ,कठिन हैं ये रास्ते
बना ले ख़ुद को क़ाबिले ,लोगों के मिसाल की
अमिट लक़ीर खींच दे ,ब्रहमांड में खरा -खरा
अंगुलियाँ समेट के तू , मुट्ठियाँ बना ज़रा -ज़रा
व्यक्तित्व बन पहचान की ,अपने को ज़रा -ज़रा
दुनियां गले लगाएगी ,कोटि -कोटि ,धरा - धरा
चक्षुएं बिछाएगी ,यहाँ -वहां , जहाँ -तहाँ
ईश्वर भी मुस्कुराएगा , देखकर तेरी अदा
वो भी सिर झुकायेगा ,देर ही सही ज़रा
अंगुलियाँ समेट के तू , मुट्ठियाँ बना ज़रा -ज़रा
"एकलव्य "
3 टिप्पणियां:
जिसमें दम है,
जिसमें साहस है
कर गुजरने की उसके साथ फिर ख़ुदा ही जुड़ जाता है।
प्रेरणा देती रचना।
आदरणीय ध्रुवजी, यह रचना अविस्मरणीय है।
लयबद्धता इसे जुबान पर आसानी से चढ़ा देती है। मैं इसे एक प्रभावशाली प्रेरणागीत मानती हूँ जिसका गायन गायक और श्रोता को उत्साह और ओज से भर देगा।
सोच मत तू है धरा ,पंख तो फैला ज़रा
उड़ जा आसमान में ,विश्वास से भरा -भरा
देख मत यूं मुड़ के तूं , लौटने के वास्ते
क़िस्मत को कर ले तू बुलंद ,कठिन हैं ये रास्ते
बना ले ख़ुद को क़ाबिले ,लोगों के मिसाल की
अमिट लक़ीर खींच दे ,ब्रहमांड में खरा -खरा
वह प्रिय ध्रुव | बहुत प्रेरक संवाद से भरी रचना | पुरानी है उतनी ही प्यारी है | एक दम सधी | हार्दिक शुभकामनाएं और स्नेह | यूँ ही आगे बढ़ते रहो |
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