मंगलवार, 28 फ़रवरी 2017

"अधूरी प्यास"


                                                            "अधूरी प्यास"            


दिल में तलब है ,आज़ फिर
कुछ कर दिखाऊँ ,फिर वही ,
फ़िर वही ,हूँ सोचता
कुछ अनकही बातें नईं  ,

हूँ जानता मैं भूत को
भविष्य जो ,अपना नहीं
खंगालता मैं कंकाल को
मिल जाये कुछ ,आशा यहीं ,

चलता हूँ अक्सर रोज़ मैं
पा जाऊँ मैं ,राहें कहीं ,

पाँवों में, छालें पड़ रहे
पथरीली राहें देखकर
आँखों में कंकड़ गड रहे
चलने की इन पर सोचकर ,

अक़्सर जहन में तैरतीं
कुछ कर दिखाने की मग़र
पीछे क़दम हैं लौटते
लहरों को उठता देखकर ,

कुछ पल ठहरता मैं ज़रा
जानें क्यूँ ! यह सोचकर
जायें न ढह ! अस्तित्व मेरा
लहरों से यूँ ,रेत पर ,

अम्बर है नीला मन में मग़र
है रात काली ,स्याह सी
दिखती नहीं मुझको कहीं
क़ोई पुरानी ,राह भी। ........


                      "एकलव्य"    

                                                                                                                                                            छाया चित्र स्रोत :https://pixabay.com

"मेरे आज़ाद शेर" भाग 'तीन'



                                                      "मेरे आज़ाद शेर" भाग 'तीन'  



एक रौनक़ है आज़कल महफ़िल में मेरे ,
जो देर तलक रहती है
कल शाम तक मातम पसरा था ,
आज़ जशनों  की नुमाइश होती है
महफ़िल में मेरे।

कब तक डरेंगे हम अंधेरों से
रौशनी भी आयेगी एक दिन
जागे तो हम बहुत हैं ,डर-डर के
इन आँखों में नींद भी आयेगी एक दिन।

जिंदगी से माँगा था ,मैंने भी बहुत कुछ
मेरी झोली ख़ाली थी
कुछ पाया ,कुछ खो दिया
ज़िंदगी ही कुछ मतवाली थी।

ज़िंदगी शुरु होने से पहले ख़त्म हो जाएगी
कभी सोचा न था ,
राह चलने से पहले ,मंज़िल खो जाएगी
 कभी सोचा न था।

लोग अक़्सर आते रहते हैं ,मेरी क़ब्र पे
ख़ुशनसीबी है ,
ज़िंदा था कभी मैं भी ,दो पल बातें न हुईं
बदनसीबी है।

चंद पल आये थे मेरे हिस्से
कमबख़्त !ज़िंदगी को नागवारा था
इल्म नहीं इस बेरब्त ज़िंदगी को
कई रातें मैंने, रोकर गुजारा था।

बड़ी मुश्क़िल से
ये लम्हा नसीब हुआ है ,आज़
कुछ लम्हा ही सही
मौत की पहलूं में गुजारा था।

बड़ी-बड़ी बातें किया करता
चौराहों पर बैठ के ,
ख़ुद पे आई तो ,कहता हूँ
मैं तो केवल बंजारा था।

जा रहा हूँ ,दुनियां से
लेक़िन नाम याद रखना ज़ुरूर
निकम्मा ही सही ,छोटा ही सही
तेरे आसमां की काली रातों में ,
चमकता सितारा था।



                                "एकलव्य"
                     

छाया चित्र स्रोत:https://pixabay.com



सोमवार, 27 फ़रवरी 2017

"तैरतीं ख़्वाहिशें" भाग 'दो'


                                                              "तैरतीं ख़्वाहिशें" भाग 'दो'   


हर सुबह, एक नई सुबह आती थी मेरे जीवन में
लेकर चला जाता था , कुछ भद्दे से औज़ार
दिल में बस एक ही तमन्ना रहती थी
क्यूँ सोया नहीं ,मैं रात भर
क्यूँ  रोया नहीं ,मैं आंस भर
क्या ये मेरे पेट की क्षुधा थी
या मेरे मन का  बहम ,

जहन में हर पल उठती थी ,एक चुभती सी जुम्बिश
क्या मेरे बच्चे रात भर सोये थे ?
नहीं तो क्या मेरी संगिनी ,रात भर रोई थी ?

दिल में एक आश लिए आज भी
पैरों में बिना जूतियां पहने आज भी
घास भरे पगडंडियों पे
संभलते -संभलते ,फ़िसलते हुए आज भी ,

वज़नदार वो, लकड़ी का हल
जिसमें लगे थे ,लोहे के फाल
बूढ़े कंधों को ढोता हुआ
माथे पे उगे पसीनों को पोंछता हुआ
मैं चला जाता हूँ ,आज भी ! मैं चला जाता हूँ आज भी !

लोग शामों महफ़िल जमाते हैं ,शीशमहल की चार दीवारी में
मैं पसीना बहाता हूँ ,खेतों की क्यारी में ,

लोग घी से सनी रोटी तोड़ते हैं ,चारो -पहर
मेरे घर में बच्चे रोते हैं ,सुबह -दोपहर ,

लोग दूध से बनीं ,सेवईंयां  खाते हैं
मेरी झोपड़ी में ,भूख़ से बच्चे चिल्लाते हैं ,

उनके महख़ाने में ,शामों -महफ़िल सजती है कहीं
सिसकियाँ लेते -लेते मेरे बच्चे सोते ,झोपड़ी में कहीं ,

घर के चौखट पे वो ,इंतज़ार करती है मेरा ,बस इतना सुनने को
आज कुछ ले आये क्या !आज कुछ ले आये क्या !

मैं हमेशा उससे कहता हूँ ,अल्लाह का करम होगा
एक दिन हम पर !
जब हम पेट भर खायेंगे ,दोनों-पहर ,

न जाने क्यूँ !मैं उसे झूठी दिलाशा देता हूँ
न जाने क्यूँ ! जिंदगी की नई परिभाषा देता हूँ ,

न जाने क्यूँ ! लोग अन्नदाता कहते हैं मुझे
न जाने क्यूँ !लोग फुसलाते हैं मुझे ,

दबती भूख को ,दबाते हुए
भरसक नींद ,लाते हुए
आँखों को मैं बंद करता हूँ
बस यही सपनें ,संजोता हूँ ,

शायद कल ,वो दिन होगा
मेरे बच्चे भी मुँह में ,रोटियाँ दबायेंगे
और दौड़े  चले आयेंगे मेरे पास ,केवल इतना कहने
पिताजी हमारे भी दिन आ गये!पिताजी हमारे भी दिन आ गये!



                              "एकलव्य"              


छाया चित्र स्रोत: https://pixabay.com

रविवार, 26 फ़रवरी 2017

"वो छोड़ जायेंगे"


                                                                   "वो छोड़ जायेंगे"       



रात -दिन जलता हूँ ,मोमबत्ती की तरह
आंस भर रोता हूँ ,सावन की बारिश की तरह

बूंदों में मिलें हैं ,ख़ुशियों और दुःख के अंश
दुःख तो देता है साथ ,दोस्तों की तरह
खुशियां ख़ारिज करतीं हैं  मुझे,काफ़िरों की तरह ,

फूल भी लगतें मुझको ,काँटों की तरह
चुभते हैं, सर से पाँव तलक मेरे,

कुछ रूक कर ,कुछ निकालने की कोशिश है
रोक कर बहते आंसू ,सब भुलाने की कोशिश है ,

पतंगें उड़तीं हैं ,दीपक को पाने को
कुछ पल ही सही ,गले लगाने को
न जाने ये ,कैसी अधूरी चाहत है
मौत को प्यार से ,गले लगाने को ,

दौड़तीं हैं लहरें ,समंदर की
कुछ पल ही सही ,किनारों को पाने में
जानता हूँ ,वो छोड़ जायेंगे मुझको रोता हुआ
ज़ालिम इस ज़माने में।


                                "एकलव्य"                    


छाया चित्र स्रोत:  https://pixabay.com 

"ख़ाली माटी की जमीं"

    
 "मेरी रचनायें मेरे अंदर मचे अंतर्द्वंद का परिणाम हैं"  
                                                                        

                                               "ख़ाली माटी की जमीं"


बचपन था मेरा नासमझ
ले आया बद की रौशनी
एक ओर करता ग़म अंधेरा
उस ओर ख़ुश है रौशनी ,

पाने को एक छोटी ख़ुशी
एक दौड़ लगती है कहीं
कुचले गये अरमान सारे
इस होड़ के रौ में वहीं ,

चित्कारता मन भी कहे
कब ख़तम ! ये खेल भी
जारी रहा बरसों तलक
बस करो ! अब अंत भी ,

जीता रहा गिनकर नये 
हर वर्ष को यह सोचकर
बाक़ी अभी है और भी
कल का सवेरा-दोपहर ,

फिर से  हूँ कसता, मैं कमर
कुछ कर दिखाऊँ मैं नई
उठकर खड़ा हूँ लांगने
मिल जाए ,कोई दुनिया नई ,

तन पर पड़ीं हैं झुर्रियाँ
आँखें हैं पथराई हुईं
सामर्थ्य न मेरे पास है
क़दमों में लड़खड़ाहट भरी ,

आगे अँधेरा ,घनघोर है
पास में दीपक नहीं
एक रौशनी की दरकार आज 
असहाय जीवन में कहीं ,

ऑंखें खुलीं , बैठा हुआ
उस नीम की ,छाया तले
झूला था मैं, बचपन भले 
जिसकी टहनियों से लगे ,

पत्ते नहीं अब शेष हैं
कुछ लकड़ियाँ अवशेष हैं
अब तमन्ना, किसकी करूँ
बच गए अब लेश हैं ,

हूँ डोलता तन को झुकाये
सहारा हैं मेरी डंडियाँ
रोता हूँ बस यह  सोचकर
कभी था तनकर मैं खड़ा ,

धुत्कारते मुझको वही
पाला था जिनको प्यार से,
हैं रुलाते मुझको वही
जिनको समेटा बाँह में ,

तिल -तिल बनाया मैंने वही
जो आशियां था प्यार का
जिसमें लगाये सपने कई
वो शामियां बहार का ,

आज जिनके छत वही
मेरे सिर पर हैं नहीं,
मौसमों के मार झेलूँ
रात वो भूली नहीं ,

तन पर पड़ा कम्बल वही
जिसमें नये-से छेद हैं
इनको प्यार झोंकों से इतना
रोके इनको हैं नहीं ,

बूढ़े हाँथों से बनाया
मैंने एक छप्पर नई
बूढ़े मन को एक दिलाशा
सर पे है एक छत नई ,

रात भर हूँ काँपता
कुछ सोचकर यूँ जागता
झूठे ही सपनें देखता
पल भर यूँ दिल को सेंकता ,

कल फिर होगा ,एक सवेरा नया
अपना भी होगा ,एक बसेरा नया ,

रौशनी चमकती आयेगी
ज़िंदगी थोड़ी शर्मायेगी
होकर खड़ा ,तनकर यहाँ
दुनियां करूँगा ,मैं जवां ,

आ गई है रौशनी ,अब मैं कहाँ !
लगता है जैसे खो गया
आँखें खुलीं, पथरा गईं
हरक़त न कोई अब यहाँ ,

कुछ लोग आयें हैं मेरे
महलों वाले इस छप्पर में
लिपटा रहा मैं रात भर
अरमानों के कम्बल में
फ़िरता रहा मैं रात भर
वीरानों-से जंगल में ,

बाँधते हैं वो मुझे ,दुधिया भरे पोशाक़ में
लादकर मुझको चले ,बस मिलाने राख़ में ,

आज  ख़ुश हूँ सोचकर
एक मिली दुनिया नई
आज  हूँ ,कुछ ऐंठकर
फ़िर शुरू एक नया सफ़र ,

कितने नासमझ ,ये लोग हैं
रोते दिखावे के लिए
झूठे बनाते पुल नए
रेत के हरदम कई ,

पल में ये बह जायेंगे
समंदर के थपेड़ों से अभी
हाँथ कुछ ना पायेंगे
ख़ाली माटी की जमीं। .... .........ख़ाली माटी की जमीं। .... ..



                                "एकलव्य"      
"मेरी रचनायें मेरे अंदर मचे अंतर्द्वंद का परिणाम हैं"
                        

छाया चित्र स्रोत: https://pixabay.com

शनिवार, 25 फ़रवरी 2017

"बारिश तो होगी ,माँ न होगी"


                                                                     "बारिश तो होगी ,माँ न होगी"                   


दरवाज़े पर बैठी रोती है आज भी ,अपने बेटों के लिये
आँखें बूढ़ी हों चलीं ,सलामती की दुआओं में उसकी ,

झिड़कती थी ,तड़पती थी ,रो लेती एक पल
माँ जो कभी डाँटती थी ,मुझको दो पल ,

आँखों से अमृत ,मुँह से शहद की वो बूंदें
जिसके लिये तरसता हूँ ,एक पल आज भी ,

खाने को आवाज लगाती ,कुछ एहसास जगाती
आज तो भूख लगती है ,आवाज नहीं आती
खाना तो खाता हूँ ,प्यास नहीं लगती ,

सोकर जगता था ,माँ नहलाती थी मुझको
खेलकर आता ,माँ खिलाती मुझको
आज सुनी पड़ी गलियां मेरी ,एक आवाज को
गलियों  में माँ आवाज लगाती मुझको

कभी न कभी वो छोड़ जायेगी मुझको
माँ याद आयेगी ,बहुत मुझको ,

सावन तो आएगा ,वो बात न होगी
बारिश तो होगी ,माँ न होगी। .........


                               "एकलव्य"    
   
                           

छाया चित्र स्रोत: https://pixabay.com

शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2017

"झूठी आवाज़"


                                                                     "झूठी आवाज़"


छुप गई सच्चाई सारी ,कागज़ के इन टुकड़ों में
झूठ उभरकर आता केवल ,बनकर स्याह लक़ीरों में ,

दो पैसों का कागज़ बाक़ी ,रंग भरा बेईमानी का
सत्य का दिखता पता न कोई ,खेल बना तस्वीरों का ,

कल तक बना ,आवाज़ देश का
डंका पीटा करता था
बना आज़ धुन ,शहनाई का
मीठी नींद सुलाता है ,

पेज़ बना है ,तीन देश का
मदमस्ती में डूबा है
भूखा -नंगा शीर्षक देकर
देश को इन्होंने लूटा है ,

आवाज़ सत्य की ग़ुम सी लगती
ख़बरों के इन  मेलों में
दुःख की शाम हमेशा ढलती
चलचित्र के स्क्रीनों पे ,

हुआ क्रिकेट तो ,याद यूँ आया
मेरा देश है, ना है पराया
चंद शॉट में देश है पाया ,

विज्ञापनकर्ताओं की कैसी माया
कैसा अद्भुत खेल रचाया
सत्य को हमनें यूँ झुठलाया,

चकाचौंध ने जो भरमाया
केवल पन्नों में आनंद समाया।


                                "एकलव्य" 
                

                                       
छाया चित्र स्रोत: https://pixabay.com

"मेरे आज़ाद शेर" भाग 'दो'


                                                                    "मेरे आज़ाद शेर" भाग 'दो'

                                               
इल्म नहीं मुझको ,उन्हें पाउँगा या नहीं
प्यार हो गया ज़िंदगी से मुझको ,उनके यादों में कहीं ,

न जाने  ये कैसी उलझन दिनों -रात रहती है, उनसे मिलने की
मिलूँ तो बढ़ने लगती हैं ,ना मिलूँ तो उलझने लगती हैं ,

आज़ तो चाय भी फ़ीकी लगने लगी है ,उनकी याद में
कड़क चाय पीने की आदत थी मुझको
फ़ीकी भी अच्छी लगने लगी है ,उनकी याद में ,

मज़लिस हुयें हैं रौशन ,बस उनकी याद में
चिराग़े रौशन करूँ कहाँ ,मौला बता, उनकी फ़रियाद में ,

महफ़िल की रौनक़ ,कभी अच्छी लगती थी वीरानों से भी
आज़ क़ब्रिस्तान की सुनीं  गलियाँ ,पसंद आने लगीं हैं मुझको ,

दरिया दिल था कभी ,दुनियां के लिये
आप क्या दाख़िल हुए ,दुनिया ही सिमट गयी है ,मेरे ही वीरानों में ,

दो -चार चिरागें  मैं भी जला लूँ ,मौला के उस चौख़ट पे
आज़ तो अपने को ही भूल बैठा ,कैसे आऊँ मालिक़ तेरे दर पे ,

आता हूँ ,फ़िर भी भरतीं हैं ,जाता हूँ फ़िर भी भरतीं हैं
आँसूं ही तो हैं ,कुछ ग़म में गिरतें हैं और कुछ ख़ुशी में ,

ख़्वाहिशें तो तब भी थीं ,जब आप न थे
आज़ भी ,बैठो हो पहलूँ में मेरे ,

तब तैरा करतीं थीं आँखों में ,सपनें बनकर
आज़ गिर आयीं हैं ,आँसूं बनकर आँखों से........


                     "एकलव्य "
              

                                
             
छाया चित्र स्रोत:https://pixabay.com 

गुरुवार, 23 फ़रवरी 2017

"बेपरवाह क़ब्रें "

                                                                       
ज़िंदगी भर फ़िरता रहा जिस मोहब्बत की तलाश में भँवरे की तरह
वो मिली है आज़ मुझे ,अपने क़ब्र में आकर ,

रोता था मैं उन क़ब्रो देखकर बेकार  में
आज़ लगता है ,कितनी  प्यारी है  ये दुनिया
मुर्दों के जहाँ  की ,इस जश्न्न  में आकर ,

क़ब्रिस्तान के इस सुनसान गलियों में गुफ़्तगू करतीं हैं ,दो क़ब्रे इस तरह
अल्लाह की नुमाइंदगी करते, उनके नेक़ बंदे जिस तरह ,

हम दिल ही दिल में बातें करते हैं ,ज़ुबाँ की क्या ज़रूरत
हम रूह की हक़ीक़त समझते हैं ,ज़िस्म की क्या ज़रूरत ,

रोते नहीं हम एक पल भी कभी ,कमबख़्त ! ये रोने वाले काफ़िर
खामोख़ाह चले आते हैं हमारी क़ब्रों पर ,भँवरे की तरह

जिन्हें देखकर बस यही ख़्याल आता है ,कितने बेवकूफ हैं
ये  काफ़िर इस दोज़ख में आकर ,भँवरे की तरह ,

मन ही मन हम कहते हैं ,अरे काफ़िरों  हमें सोने तो दो !
इस क़ब्र में ,चैन से खोने  तो दो !

शर्म नहीं आती ,किसी ग़ैर की नींद हराम करते हो
ख़ुद तो नींद आती नहीं ,हमें अपने ज़ख्मों से परेशां करते हो,

ज़िंदगी भर फ़िरता रहा जिस मोहब्बत की तलाश में भँवरे की तरह
वो मिली है आज़ मुझे ,अपने क़ब्र में आकर..........


                                "एकलव्य "
     

      
छाया चित्र स्रोत:  https://pixabay.com                         

मंगलवार, 21 फ़रवरी 2017

"मेरे आज़ाद शेर " भाग 'एक'



                                                            "मेरे आज़ाद शेर " भाग 'एक'



दुनियां के उसूलों की परवाह ,जब कभी मैंने किया
दिल में छुपे जज़्बातों को ,हर घड़ी रुसवा किया।

देखता कोई नहीं ,दिल में छिपे जो चोर हैं
ख़ुद को बतायें कोतवाल ,आप झांकें हैं नहीं।

पावों पड़ी हैं बेड़ियाँ ,कुछ भी न कह पाने के लिए
उठतीं हैं कोमल आंधियां ,कुछ कर दिखाने के लिए।

जाओ की ऐ रात काली ,घुड़सवार तैयार हैं
बैसाखियों के सहारे ही सही ,सुबह का इंतज़ार है।

रात काली स्याह सी ,हरदम डराती थी
कुछ डर गए ,कुछ मर गए
कुछ पाये गए ,कुछ बिछुड़ गये
कुछ ज़िंदगी ही ,मतवाली थी।

कलम का सिपाही हूँ ज़रूर ,लिखता हूँ लेकिन शूरवीर
पास में खंज़र नहीं ,ख़्याल से पैबंद हूँ।

सजने लगे मैदान थे ,वीरों की बातें चलीं
ठहरे सिपाही कलम के ,लिखावट तो अपनी जंग थी।

चर्चित हुआ जो नाम था ,अस्तित्व जिसका है नहीं
कल तक  नहीं मशहूर था ,लगती हैं अब तो बोलियाँ।

कुछ ने कफ़न बेचा ,बेवज़ह नंगा किया
मुझको तो अपनों ने ,भरी महफ़िल रुसवा किया।



           "एकलव्य "   
           

                                               







"प्यासा ही ख़ुश हूँ" ( कविता )



                                                            "प्यासा ही ख़ुश हूँ" ( कविता )                                  



आँखों में छायी बदली की घनघोर घटा
कुछ हैं काले ,श्वेत हैं कुछ ,कुछ आशाओं की छटां 
कुछ बरसाते ग़म की बारिश और कुछ में आनंद बसा 
गिरते हैं कुछ मोती बनकर ,बनते हैं जीवन की सदा ,


भर देते आशाओं का दरिया 
बनकर जीवन की लड़ियाँ 
प्यास बुझाये सबके मन का 
कुछ पाते परमानन्द सदा ,


कुछ खग चिंत्तित्त ,बैठे हैं डाल पर 
प्यासे हैं ,धैर्य धरे अपने हाल पर
उनको दिखता ,चाल है कोई
बिना स्वार्थ ना दुनियां रोई ,


प्यास बुझाने क्या मैं जाऊँ ?
कहीं जाल में ना फँस जाऊँ ?
दुःख का दरिया ,हो तो निकल भी जाऊँ
प्रेम के दरिया में फँस जाऊँ ,

अस्तित्व जो मेरा ना मिट जाए
पड़ के पानी के चक्कर में
भली आश है ,जगी जो मेरे
सुंदर से कोरे मन में ,

प्यासा ही ख़ुश हूँ ,प्यास बुझाने को मैं
इस मायावी संसार में
दूर हूँ ,झूठे दुनियां के रस्मों से
बाक़ी सब बेक़ार हैं,


            "एकलव्य "       
                                                 







सोमवार, 20 फ़रवरी 2017

"देश चरित्र" (काव्य खण्ड)



                                                                       

                                                                      "देश चरित्र" (काव्य खण्ड) 



कभी गूँजती गलियां जिनकी भारत के जयकारों से
ग़ुम है जिनकी आज बोलियाँ ,पत्थर की दीवारों में ,

वो समय था एक दिन ,सोचा करता आजादी के नारों को
एक समय है आया मेरे सम्मुख, बस पेट की क्षुधा मिटाने को ,

चिल्लाते थे देश हमारा ,अब तो तुम आजाद करो
नही है डंडा ,नही है लाठी ,देश हमें सौग़ात करो ,

तन पे कपड़े न पेट में रोटी
सर पे कफ़न बस इच्छा छोटी
हिंदू -मुस्लिम ना भेद था कोई
जाति -पाती दीवार ना कोई
देश प्रेम की इच्छा बोई ,

छोटा था पर हिंदुस्तानी
ढेरों मज़हब ,एक ज़ुबानी
दिल में था ,आजादी का जज़्बा
हाथ न पैसा ,कोई ना रुतबा ,

हरदम दिखती ,मंज़िल हमको
बस आजादी की राहों में
याद नहीं हम कब सोये थे
लंबी -लंबी रातों में
भरसक कोशिश रहती अपनी
एक नया सवेरा लाने को ,

घर में मेरी माँ सोचती ,कब आयेगा लाल मेरा
जन्म दिया है मैंने जिसको ,सूना आँगन आज पड़ा ,

याद हैं पेड़ों की डालियां ,जिससे लगकर झूला था
सोंधी -सोंधीं  महक़ धरती की ,जिसको बचपन चुमा था ,

तेज़ आँधियां मुझे बुलायें ,पल-पल अपने वेगों से
रह -रह कर कुछ याद दिलायें ,सूखे अपने करतल से ,

तज़कर जिनको कूद पड़ा मैं ,आजादी के मैदानों में
भूल गया मैं अपने आप को ,शुमार हुआ परवानों में ,

याद है बीते कल के किस्से ,गली -गली हम फिरते थे
भारतमाता जयघोष के नारे ,अम्बर गूंजा करते थे ,

क्या बूढ़ा क्या बच्चा था
किन्तु देश भक्त वो सच्चा था ,

छोटी सी एक इच्छा थी ,स्वराज हमारा होगा एक दिन
ना दौलत ,ना शोहरत चाहिये ,राज हमारा होगा एक दिन ,

कहते उसको क़िस्मत वाला ,जो फाँसी पर झूला था
हर शहीद था वो मतवाला ,इस धरती को चूमा था ,

कुछ ब्याहे थे और अनब्याहे
कुछ ने घुँघट  खोला था
कुछ घुँघट भी खोल न पाये
आजादी को दुल्हन माना था ,

खुद का आँगन किया ना रौशन
अँधियारा घर में पसरा
बस सीनों में आग लगी थी
आजादी के दीये जलाने को ,

क्या उत्तर ,क्या दक्षिण सीमा
हर जगह देश का नारा था
क्या नारी ,क्या नर हो देश का
बस आजादी ,पैग़ाम हमारा था ,

रंगों में बहता पिघला लोहा
बन गया ,संकल्प हमारा था
ऊँच -नीच का अंतर भूला
इंसान बन गया नारा था ,

लाखों झूले ,फाँसी के फँदे पे
साहस जिनका साथी था
एक पल को ,वो डरा नहीं था
मौंत को मंज़िल माना था ,

एक बच्चा गलियों में दौड़ा ,लेकर झंडा प्यारा था
सौ कोड़े थे उसने खाए ,नंगी पीठ गंवारा था ,

जलिया वाला वो दिन भी याद है
मेला था मैदानों में
जनरल ने फ़ायर करवाया
हज़ारों निहत्थे अरमानों पे ,

कुछ भागे ,कुछ भाग न पाए
उन गोलों की आँधी में
कुछ ने अपने बच्चे खोए
कुछ खोने को आतुर थे ,

हमने खेली ख़ून की होली ,रंगों का कहीं पता न था
खेत वीरान पड़े थे अपने ,मौसम तो कुछ जुदा सा था ,

लाखों शहीदों की क़ुर्बानी
बन के आई आजादी बेईमानी
कहने को देश स्वतंत्र हुआ
पर अपनों ने ही परतंत्र किया ,

देश था एक दिन ,एक हमारा
अपनों ने तक्सीन किया
एक हिंदुस्तान बना था प्यारा
दुजा पाक़िस्तान हुआ ,

मैं हूँ हिंदू , हूँ मैं मुस्लिम
नारा यही लगाते थे
लहू के रंग में भेद न कोई
नदियां जहाँ बहाते थे ,

भर -भर लाशें रेले चलती
बाघा के जिस सीमा में
मानव जीवन का न कोई मूल्य था
धर्म मूल्य था ,पैग़ामों में ,

सोचा था आयेगी आजादी
 लेकर सपने कुछ प्यारे से
सर्वश्व हमने बलिदान किया था
जिसकी आन की राहों में ,

बस राम -रहीम आवाज़ बुलंद थी
देश के कोने -कोने में
असली मक़सद भूल गये हम
आजादी के मतवालों के ,

आजादी की सुबह न देखी ,वो शख़्स हमेशा खेत रहे
अंग्रेजों के पिठठू थे जो ,आज देश के लाल बने ,

वही तिरंगा नाम है जिसका
उन मतवालों ने रंग भरे
चमक न जिसकी ,धूमिल हो जाये
मरते -मरते भी हाथ उठे ,

मेरा रंग दे बसंती चोला ,कहकर जिन्होंने प्राण दिये
कोई स्वार्थ था, ना कोई लालच जिनकी
बस आजादी के श्वास भरे ,

आज देश में नारे लगते ,ना आजादी को लाने को
स्वार्थ निहित है ,दिल है छोटा ,बस अपनी क्षुधा मिटाने को ,

कोई कहता है देश हमारा ,कहता कोई देश पराया
कहता कोई गोली मारो ,जो कहता है देश हमारा ,

आज के देशभक्तों की ,देशभक्ति निराली
करे देशभक्ति बस सत्ता पाने की ,

माटी से ना कोई मतलब
मर गया ,आँखों का पानी
हैं केवल ये दंगे कराते
भाई को भाई से लड़ाते
बनकर लोमड़ लाभ उठाते
वसुधैव कुटुम्बकम का राग झुठलाते ,

कभी -कभी ये शोर मचाते ,संसद की दीवारों में
बांटो फिर से देश हमारा ,छोटे -छोटे भागों में ,

देश का झंडा ,गुम सा लगता
झंडो के इस मेले में
बलिदानों का रंग दिया था जिसको
आजादी के मतवालों ने ,

देश की याद किसे है आती
टी वी पर चलते खेलों से
कुछ पल को ये देश हमारा
फिर अपना घर ,देश है प्यारा ,

आज भी हमको छाया दिखती
उन आजादी के मतवालों की
खड़ा किया है हमने जिनकों
बर्फ़ों की उन सीमा पे ,

मसला है ये, कौन है दुश्मन
किसको मार गिराऊँ मैं
सब नक़ाब ओढ़े हैं बैठे
अब किसको झुठलाऊँ मैं .......

    "एकलव्य "
          
                       






            







रविवार, 19 फ़रवरी 2017

"फ़िर से" (ग़ज़ल )



                                                                    "फ़िर से"  (ग़ज़ल )



डरता हूँ क़दम रखने से ,फूलों पर फ़िर से
देते हैं चुभन ये फूल ,चैन मिलता है पावों को काँटों पर फ़िर से ,

छाले पड़े थे इन राहों पर चलने से
तलाशता हूँ एक छाँव भरी मंज़िल फ़िर से ,

संजोए थे कई ख़्वाब ,नीले आसमां को देखकर
उड़ने से नहीं ,गिरने से डर लगता है जमीं पर फ़िर से ,

ख़्वाब तो कई थे ,पूरे करने को जिंदगी में
अधूरे न रह जाए ख़्वाब ,पूरे होने से पहले फ़िर से ,

कुछ आंधियाँ चलती थीं ,जीवन के वीरानों में
ख़लिश ये नहीं मैं गिर जाऊँगा ,मसला है अकेला हो जाऊँगा फ़िर से ,

बचपन था जब खेल -खेल में रो लिया करता था ,कुछ पल
रो तो लूं ,आज भी थोड़ी देर ,हँसेगी दुनियां पागल जानकर फ़िर से ,

परवाज़ का दस्तूर है ,आसमां में उड़ना केवल
दुनियां का दस्तूर है ,गिरने वालों को देखकर हँसना फ़िर से ,

उड़ तो मैं भी जाऊँ ,हौंसले साथ दे ग़र
बन जाऊँ आवारा परिंदा ,पँखों को फैलाकर फ़िर से ,

दगा तो दे दूँ ,उस शिकारी को मैं भी ,
सपने ही कुछ रंगीन हैं ,आप ही उलझा जाता हूँ फ़िर से.........



                            "एकलव्य " 
            
                         






शनिवार, 18 फ़रवरी 2017

"रंगों से दुनिया बनती है "





                                                                   "रंगों से दुनिया बनती है "



लोग कहते हैं ,रंगों से दुनिया बनती है
लाल ,पीले ,हरे ,नीले ,सपनों की एक बगिया सजती है,

कुछ के पास ग़ुलाबी सपने
कुछ के पास हैं काले
पर कोई लाल में मस्त है
कुछ हरियाली के रखवाले ,

ग़ुलाबी रंग की चाह में कुछ हैं ,लाल रंग बहाते
हरे रंग को स्याह बनाते ,जो हैं दिल के काले
हरे रंग की बाट है जोहे आदम की एक जाति
जिसको हर पल स्याह बनाये ,इच्छाओं की आँधी ,

ख़ुद को कहता मानव रंग हूँ
ले आया मैं रंगों का मेला
चुन लो तुमको जो पसंद हो
खुली है झोली ,लगा है रेला ,

कहे कभी न अपने मुँह से
रहे  हमेशा अपनी धुन में
बेचे जाये ,जो रंग झूठ है
दुनियां के बाज़ारों में
हर शख़्स जो जरूरतमंद है
खरीदे औने -पौने दामों में ,

पुड़िया खोले ,रंग हो फीका
केवल आटा ,रंग सरीख़ा
ख़ुशियाँ दिखती कहीं न इसको
मन में पश्चाताप भरी हो ,

उम्मीदों के पुल वो टूटे ,जिस पग होकर मुझको जाना
पास बची ना  नौका टूटी ,हो सवार उस तट को पाना ,



     "एकलव्य "      
            
                                                                     

शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2017

तूँ क़िताब "अंश दो"



                                                             

                                                                    तूँ क़िताब "अंश दो" 



ज्यों -ज्यों तेरे पन्ने खोलूँ
ख़ुद से ही मैं सब कुछ बोलूँ
अपरिचित तूं ,ज्ञात मुझे है
एक परिचित आभास लगे है ,

तेरे पन्नों की जो स्याही
मन में पल -पल रंग भरे हैं
तेरे पन्नों के कुछ अक्षर
सवेंदनाओं से मेरे जुड़े हैं  ,

याद करूँ मैं बीते लम्हें
कुछ पढ़कर मैं सोचूं ऐसे
सारांश है तू मेरे जीवन के ,

नज़्में कुछ थीं सोई अंदर
आज गिरी हैं अश्रु बनकर
चन्द वाक्यों में मेरी कुंठा
व्यक्त करे  तूं भाव में अक्सर ,

कुछ खोया था ,कुछ था पाया
शेष वही जो तुझमें समाया
आज जिसे उदगारित करतीं
अक्षर बनकर ,तेरी माया ,

हो प्रफुल्लित तुझको पढ़ता
बाक़ी जो है ख़्वाब पराया
खत्म न हो जो तेरे अक्षर
मन को एक एहसास दिलाया ,

कालजयी हों तेरे अक्षर
ह्रदय ने एक आवाज लगाया........



     "एकलव्य "                 

                                                                   

"तूँ क़िताब"



                                                   

                                                                    "तूँ क़िताब"    


तूँ क़िताब यूँ बन के आई
नैनों में तूँ ऐसी छाई
शब्दों में ऐसा प्यार छिपा है
लगे हो यूँ ,संसार बसा है ,

ज्यों -ज्यों तुझको पढ़ता जाऊँ
अपने को ही खोता पाऊँ
एक पल को मैं डूबूँ जल में
तेरे पन्नों के आंचल में ,

छाई आँखों में एक मधुशाला
अक्षर बनें हैं ,घूँट का प्याला
हर प्याले में स्वाद नया हो
अनुपम एक एहसास मिला हो ,

शब्दों का एक  ऐसा अमृत
पाया मैं, अपने को विस्मृत
चेत न मुझको ,तेरी काया
हर पन्नों में रूप समाया ,

चाहूँ एक मैं नींद तो ले लूँ
सुन्दर कुछ तो ख़्वाब सँजों लूँ,

एक हाथ से तूं जो निकले
दूजा पकड़े ,नींद है फिसले,

शब्दों की ये कैसी माया
जिसमें तेरा रूप समाया
हर शब्द में सार छिपा है
जीवन की ये अदभुत छाया .......


                              "एकलव्य "            
    


                                                  



गुरुवार, 16 फ़रवरी 2017

"इज़हारे दिल"


                                                                      "इज़हारे दिल"



आज़ बड़ी बेबाक़ी से इज़हारे दिल करता हूँ
आज़ बड़े ही संज़ीदगी से ,दिल की बात रखता हूँ,

जब किसी शख़्स से मिलता था पहली बार
न जाने क्यूँ मन उसे अपना मानता था बार -बार,

वही शख़्स बीच राहों में मुझे छोड़ जाया करता  था पराया कह के
इस पागल मन को ,तसल्ली देता था हज़ार बार ,

आज़ फ़िर वही मंज़र ज़िन्दगी में दोबारा दिखता है
आज़ फ़िर वही खारे पानी का समंदर मुझे प्यारा लगता है ,

आज़ फिर वही पुरानी राहें
आज़ फिर कुछ नई सी पुरानी निग़ाहें
आज़ फिर वही पुराने दिनों की आहट
आज़ फिर दिल के कोनों में
एक नई सी छटपटाहट
इस कम्बख़्त दिल को रोक रही हैं ,

क्या करूँ ,जाऊँ की ना जाऊँ
क्या करूँ ,सपने सजाऊँ की ना सजाऊँ
वही पुरानी धुन ,फिर से गाऊं या ना गाऊं
ओ मेरे मौला ,कुछ राह तो दिखा
नहीं तो अपने पास बुला
या तू ही इस दिल को समझा।                                                    


                               "एकलव्य "             


बुधवार, 15 फ़रवरी 2017

"फ़िर वही अधूरी शाम "

                                                           
आज फ़िर वही अधूरी शाम
अल्लाह का एहतराम
प्याले में जाम
मुँह में ख़ुदा का नाम,

तन पर मैले कपड़े
उन पर जमी पुरानी धूल
बन गयी पपड़ी उनकी यादों की ,

बैठा रहता हूँ कुछ सोचता हुआ
ख़्यालों की कस्ती खेता हुआ
अधमरा सा लेटा हुआ
बीती यादें  समेटा हुआ ,

लम्हें जो काटने को दौड़तीं थीं
मुस्कुराकर उन्हें लपेटा हुआ ,

ग़ुलज़ार तो आज़ भी है
सुना है दिल का कोना अभी
आवाज़ तो होती है खंडहर में
घोड़ों के टापों की ,

कुचला जिन्हें ,उन्होनें
अपने शोहरतें परस्ती से
हम तो फूल बिछाया करते थे
उनकी जन्नते राहों में ,

इल्म न था कुचल देंगें अपनी मौक़ा परस्ती से
एक चीख़ निकली थी कभी मेरी भी, वीरानों में ,

जमींदोह कर दिया कुछ ग़ुलामों ने मुझे
आवाज़ गूँजने से पहले ,मेरे ही आशियानों में ,

एक चीख़ अब भी निकलती है ,क़ब्रिस्तानों में
फ़र्क सिर्फ़ इतना है, सुनते हैं सभी मेरी फ़रमाईश
ख़ुद एक फ़रमाईश बनके। ........


"एकलव्य"     



                       
                                              

सोमवार, 13 फ़रवरी 2017

"संवेदना"


प्रस्तुत रचना "संवेदना" इस संसार में प्राणीमात्र के स्वार्थपरक आचरण का वर्णन है। जब एक मानुष दूसरे दुःखी मानुष के प्रति अपनी सहानुभूति प्रकट करता है ,समाज 'संवेदना' प्रकट करने वाले मानुष के प्रति उसी प्रकार अपना आचरण व्यक्त करता है जिस प्रकार प्रेमपाश में पड़ी कुँवारी नायिका अपने ही जन के कोप का भागी होती है।  धन्यवाद,  ''एकलव्य''  


मन ये मेरा बने है मानव
तन की छाया लगे है ! दानव
क़ैद हूँ मैं,तेरे आँगन में
खड़ा प्रहरी तूँ बनके जीवन में 

लाख विचार करूँ ! जो जन में
पात्र बनूँ बस, हँसी का जग में
एक अनुभव सी जागूँ ! पल में
बनूँ मैं कांधा,दुःखी जगत में 

अंधकार में खो जाती हूँ
जुगनू सा मैं सो जाती हूँ
चलती जो विपरीत हवायें
खग बनकर ! मैं उड़ जाती हूँ 

नहीं ज्ञात है कोई ठिकाना
बस समाज का ताना-बाना !
जिसमें फँसी-सी मैं रहती हूँ
निकल क़ैद से बस कहतीं हूँ !

बचपन में थोड़ी ,नटखट हूँ
हुई ! सहज जो यौवन आई
घरवाले बांधे हैं मुझको
मेरी नहीं तूं ,धन है पराई 

ज्यों मैं घर की ,चौखट लांगू
अपनों से बिसराती जाऊँ
कहे समाज कलंक!हूँ घर की
स्वयं के आँसूं पोंछे जाऊँ 

प्रीत हुई जो ,एक रसिया से
हुआ है वृंदावन ! मन ये मेरा
अंग-अंग में चित्र बनाऊँ
श्याम -श्याम भजूँ दुनियां में

हुई पराई निद्रा मेरी
स्वयं को तजकर ! जग की होई
रास न मुझको ,महल-चौबाड़ी 
उसके लिए दिन-रात मैं रोई !

शीतल पवन भी,लगे है लू सी
कसक उठे है,जैसे कोई
खोजूँ! वन-वन,भटक-भटक के
ज्ञात नहीं क्या ? इस जीवन में 

चित्कारे है ! मेरा प्रेमी 
श्वास नहीं है ,प्राण है बाकी
छुए जो मुझको पा जाये है
पूरे प्राण ,कभी थी आधी 

कहूँ! मैं तुझसे,पिया हूँ तेरी
सात जनम की ,किरिया मेरी
कल तक थी बिटिया बाबुल की
दुल्हन बनी हूँ ! आज मैं तेरी 

कल प्यारा था घर जो मुझको
आज पराई हुई ! मैं उसकी
अनजाने रसिया के आँगन
चढ़ डोली अब किया सवेरा 

अग्नि देवता बनें हैं साक्षी
हम दोनों के बंधन के
सप्त फेरे जो ,किये हैं हमनें 
गाँठ बांधके जीवन के 

अब तेरा मैं हाथ जो थामूं
बिन परवाह दुनियां के किए
अब नेत्र जो तेरे रोए!
अश्रु गिरे, दामन में मेरे 

मुक्त बने! तूं अपनी चिंता से
सदैव जिया मेरा ये कहे
पग-पग पर हो ,साथ जो मेरा
बन निर्भीक दुनियां से लड़े
मानव रचना तूं है निर्जर
निर्मल धारा बनके बहे......



    "एकलव्य"                  


रविवार, 12 फ़रवरी 2017

"एक बूंद हूँ मैं"





                                                          "एक बूंद हूँ मैं"


बादल से गिरती एक बूंद हूँ मैं
माटी में मिला ही सही
उस पाक -ए -ख़ुदा की रहनुमाई का
एक अमिट वजूद हूँ मैं
एक बूंद हूँ मैं .......

इल्म है मुझको अपनी ही सच्चाई का
कुछ भी नहीं ,मेरे अस्तित्व की परछाईं का
उस ख़ुदा के नेकी का ,सुबूत हूँ मैं
एक बूंद हूँ मैं  .......

गिरता हूँ अम्बर से ,मिलता हूँ ख़ाक में
टूटता हूँ ऊँचाइयों से ,जुड़ता हूँ गहराईयों से
टूटना -जुड़ना मेरी तो एक फ़ितरत है
बस अपनी ही धुन का एक जुनून हूँ मैं
एक बूंद हूँ मैं .......

मिलता हूँ गहराईयों से ,सागर एक क़ायनात बनती है
भले ही मैं कुछ भी नहीं, क़स्तियों की एक बस्ती सजती है

अकेले ही मैं कुछ भी नहीं
जुड़ते हैं  हम  करोड़ों में
शैलाबों की एक तारीख़ ,लिखता हूँ मैं
एक बूंद हूँ मैं  .......

है दम मेरे उन लहरों में
बस डुबोनें को ही नही
धरती पर आदमज़ात की
एक धुंधली सी तस्वीर हूँ मैं
एक बूंद हूँ मैं. .......

ना आंको मेरे अंदर छुपे ,भावनाओं के तूफ़ान को
रिस गया तो ,ख़त्म कर दूँगा पूरी क़ायनात एक पल में
बुरा ही सही ,अल्लाह की ख़्वाहिशों का एक फ़ितूर हूँ मैं
एक बूंद हूँ मैं .......


"एकलव्य "

प्रकाशित :वीथिका (दैनिक जागरण )      
    

"पगडंडी के घास "


                                                     

                                                           "पगडंडी के घास"


हैं जख़्म हो गए फिर हरे
रोतीं हैं आंखें बार -बार
बहते आँसूं ,मरहम बनें
दुःख के समंदर बह चलें।                                          

वो पगडंडियां ,जिनपर उगे
पीले घासों की , क्यारियाँ
थें कभी वो, हरे -भरे
जब दिल भी था ,कुछ मनचला। 

लाखों पाँव कुचले जिन्हें
बेरहमीं से ,पैरों तले
कुछ उगे थे ,कुछ उग न पाए
जड़े हीं कुछ ,कमज़ोर थीं
कुछ लड़े थें ,कुछ लड़ न पाए
अपने पूरे पुरज़ोर से। 

सहती थी वर्षा की चुभन 
नीले से आँगन तले
बहतीं  हवायें गर्म सी 
जड़ को हिलाये सूरज तले।

बस प्यास है ,एक बूंद की
आ जाये कोई बादल यहीं
बस आश है ,एक घूँट की
गिर जाये बस,नभ से कहीं। 

प्रकृति की ज़्यादती ,झेलता
फिर भी खड़ा ,बनके अचल
पशुओं के चारे में मिला
करने को शांत ,उनकी क्षुधा।

राही को देता रास्ता
बनके मैं उनका हमसफ़र
ख़ुद को बिछा पैरों तले
देता नया ,एक कारवां।

होकर अधीर बरसात में
जब भी उठाता सर कभी
इंसान कितना स्वार्थी
करता क़लम ,सिर से हमें। 

फ़िर भी नहीं ,हम हारतें
कट जाए सिर तो ,ग़म नहीं
हिम्मत जुटा के ,आप से
कहते नहीं हम ,कुछ कभी।

कहती हमारी दुर्दशा
पीले पड़े ,तन पर मेरे
देखें हमें ,कोई नहीं
चलते हमारे ,सीने पे। 

हूँ जानना ,कुछ चाहता
बेरहम जमानें से यही
ग़ैरत बचीं हो सीनें में
ग़ौर कर ले ,कुछ कभी।

संतान हूँ  उनका ,वही
पगडंडी मेरा घर ,सही
देता हूँ ,तुमको रास्ता
जिंदगी मुक़्क़मल है, मेरी।

कल्पना कर तूं भी यही
बन जा मेरे जैसा कभी
खुद को बिछा दे राहों में
उनकों बता ,तूं रास्ता। 

जो होंकर जाएं ,बस वहीं
ईश्वर के दरवाजे तक सही
कहनें को काफ़िर ,लोंग हों
पर नेंक बंदे हों  सही। 

ख़ुद को ख़ुदा में पाएगा
जो होकर ,इस पग जाएगा
चलनें में ,कुछ रक्खा नहीं
चलता तो ,एक पशु भी है। 

देता हूँ ,सत्य का रास्ता
मानों मुझको ,पगडंडी सही
है अस्तित्व कुछ ,मेरा नहीं
देता हूँ मंज़िल ,तो सही.........


                                                 "एकलव्य "

    "अभिव्यक्ति मन की गहराईयों से"                           

   छाया चित्र स्रोत:  https://pixabay.com                                                
                                                   

तैरतीं ख़्वाहिशें 'गज़ल '


                                                         

                                                                 तैरतीं ख़्वाहिशें  'गज़ल '



घर बनाया था मैंने रेंत के लाखों जतन से
सजाया था दरों -दिवार उसकी ,हज़ारों खुशियाँ समेट के ,

कई रातें बिताई थीं ,नींव की निग़रानी में
हज़ारों सपनें देखे थे ,जिसकी निगेहबानी में ,

दिल के एहसासों से ,रंगें थे दीवारें जिनकीं
किया चिराग़े रौशन ,जिनकी अँधेरी कोठऱी में हरपल ,

दबती क़दमों से आगाज़ करता था जिनकीं चार दीवारी में
कहीं ये ढह न जाये ,मेरे हलचल से ,

तरन्नुम भी मेरी गूँजतीं थीं ,हल्क़े आँहों की तरह
डरता था कहीं खंडहर न बन जाएं ,ये मेरे ख़्वाबों का महल ,

एक बार नज़र उठाकर देखता तो सही था ,अपने आशियानें को
मन ही मन मुस्करा उठता ,यह कहक़र
क्या हसीन नुमाइश लगाई है ,मैंने अपने महल के कोनों में
ख़ुदा भी मुस्कुराता होगा ,मेरे इस झूठे ज़न्नत को देखकर ,

इल्म न था एक मंज़र ऐसा भी आएगा ,मेरे ख़्वाबों में कभी
ख़ुद -ब-ख़ुद मिटा दूँगा , मैं अपने ही बैतुल्लाह को एक झटके में यूँ ,

न बचेगा एक भी ज़र्रा ,मेरे इस शामियानें में
दूर तलक बिख़री होगी ,खाक़ ही खाक़
और सनें होंगें मेरे हाँथ ,उसकी दीवारों की कालिख़ से ,

जिसकी तबाही का सबब मैं ख़ुद होऊँगा
न दूसरा क़ोई  .......
न दूसरा क़ोई .......
रह जायेंगें थोड़े अश्क़ ,बहरहाल बहानें क़ो ......



                               "एकलव्य "

                                                 
                                       

                                                         

"मैं मज़दूर हूँ ,मेरा क्या है "


                                         


                                                         "मैं मज़दूर हूँ ,मेरा क्या है "



बचपन में माँ -बाप ने पाला
बड़ा हुआ ख़ुद को संभाला
दुनिया की कुछ डगर कठिन थी
हँसकर मैंने इनको गुजरा ,

भरी दोपहर पत्थर तोडूं
रातों को मैं सड़क पे सोऊँ
जाड़ों में ना कोई ठिकाना
जला आग ,क़िस्मत पे रोऊँ ,

ये समाज धुत्कारे है मुझको
एक छोटा मज़दूर समझकर
जख़्म न देखे कोई मेरे
दुनिया का अभिशाप मानकर ,

करूँ बेग़ारी दुनियां भर के
कुछ रुपयों के एवज़ में
सहूँ सबकी बेरब्त बोलियाँ
एक रोटी की चाहत में ,

सुबह से लेकर शाम तक बैठूँ
दुनियाँ के बाज़ारों में
क़द्रदान मिल जाए कोई
गऱीबी की लाचारी में ,

भरी धूप में ख़ून जलाऊँ
पेट की क्षुधा मिटानें को
लोगों के मैं बोझ उठाऊँ
नया सवेरा लाने को ,

खुद बेघर हूँ मेरा क्या है
रात वही ,हर शाम नई
दो पैसे हाथों पे पाऊँ
जगे है मन में आस नई ,

जलीं रोटियाँ मन को भायें
नमक है छेड़े साज़ नई
तेल की बूंदें इनमें मिलाँऊं
खाकर लगे है राग नई ,

रातों को मैं गिनके बिताऊँ
कई वर्ष हो ,आस वही
मन ही मन खुश होता जाऊँ
नया सवेरा ,रात वही ,

जीवन तो कटता है मेरा
घासों के इस छप्पर में
महल न कोई मेरा घर है
नीला अम्बर ख़्वाब वही ,

दो पैसों में रोज़ हूँ बिकता
दुनियां के चौराहों पे
जिसे पसंद हो ,वो ले जाए
कुछ पैसों की क़ीमत पे ,

मैं मज़दूर हूँ ,मेरा क्या है
आना -जाना मेरा लगा है
कल दुनियां से जाऊँगा
याद किसी को न आऊँगा ,
बीती रातों की भाँति मैं
याद किया ना जाऊँगा
बस मज़दूर कहलाऊँगा …………………


"एकलव्य "                      


                                   



शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2017

कहीं ये 'मेरा डर' तो नहीं "ग़जल"



                                                     
                                           कहीं ये 'मेरा डर' तो नहीं  "ग़जल"            




प्यार था उस दरिया से ,जिसका पानी खारा था
भूला नहीं वो दिनों -रात ,जिसके किनारे सो कर  गुजारा था, 

लगी थी प्यास एक बूंद की ,इस नाग़वार जिंदगी को 
घट न जाए जिंदगानी उस दरिया की ,केवल एहसासों को गले में उतारा था,

दिन नहीं कोई आया ऐसा भी ,जब हाँथ न उठें हों उसकी दुआओं में
या ख़ुदा सलामत रखना मेरे दरिया की लहरों को ,कुछ प्यार से अपनी निगेहबानी  में
कहीं कोई नापाक़ राही बेपाक न कर दे इनकी  पाक लहरों को ,

कभी सोचा न था ये खारा पानी ही ,मेरी तबाही का सबब होगा
जिसे बचाने की भरसक कोशिश करता था कभी
आज़ वो दिन है ,कहीं ये नाफ़रमान लहरें
डुंबों न दे मुझको ,ख़ुद के ख़ुदी में ,

कहीं ये मेरा डर तो नहीं ,जो दूर कर रहा है मुझको मेरे ही अस्तित्व से
कहीं ये उसका फ़ितूर तो नहीं ,जो आमादा है डुबोनें को उसका ही वजूद,

जिस नाव पर सवार मैं ,बेफ़िक्र हो के उस पार जाने को
सुराग़ दिखतें हैं मुझे ,उसी नाव की दीवारों में ,

हालात मेरे कुछ ऐसे बनें ,जैसे वो परिंदा जहाज़ का
पाना चाहे किनारा हरदम ,उड़ता है पूरे ज़ोरों से
क़िस्मत ही कुछ ऐसी ,लौटकर आए उसी समंदर की आग़ोश में ,

पानी होकर भी प्यासा है ,एक बूंद को
शामियाना होकर भी चैन नहीं ,तरसता है एक सुक़ून को ,

कहीं ये 'मेरा डर' तो नहीं ,उस ख़ुदा के नाराज़गी का असर तो नहीं ,

आज़ लिखता हूँ मैं अपनी डायरी में बड़ी बेबाक़ी से
सामना करना भी मुश्क़िल हुआ जा रहा है उस शख्स का
जिसे मैं अपना निगेहबां समझता था ,

कहीं ये 'मेरा डर'  तो नहीं ........


                              "एकलव्य"      
                                 


गुरुवार, 9 फ़रवरी 2017

"आ गिरेंगी आत्मा पर"



                                                   

                                                             "आ गिरेंगी आत्मा पर"



आज मन है बोलता
दिल के चौखट खोलता
जो छिपी ,पर्दे में लिपटी
अनछुए जख्म ,कुरेदता ,

दर्द होता है जो छू लूँ
अनदिखे से मर्म कई
सन्नाटों में पसरी चीखें
सुनता नहीं क्यूँ बोल ना ,

याद है वो रातें  काली
काली रातें थीं कभी
आज जो रौशन हुआ है
कल वही सूनी  पड़ीं  ,

जानता मैं ख़ुश हूँ केवल
क्षण भर दिखाने के लिए
फ़िर वहीं गहराईयाँ
धुँधली सी परछाइयाँ
बीते गमों की स्याहियाँ ,

आ गिरेंगी आत्मा पर
थोड़ा डराने के लिए.........



         "एकलव्य"
                                         

बुधवार, 8 फ़रवरी 2017

"तलाश"


                                                           


                                                                 "तलाश"


ग़म के आँसू निकल रहें हैं
आज जो तेरे नैनों से
मोती बनकर सरक रहें हैं ,आज जो तेरे अखियों से ,
यादें बनकर कल आयेंगी ,सुने मेरे आँगन में।

हम बैठेंगे राह में तेरे ,बनकर अनजाने राही
जब तू हमें पुकारेगा ,हो जायेंगे हमराही। .......



                "एकलव्य "    
                                   


शनिवार, 4 फ़रवरी 2017

'जिंदगी एक कहानी' "ग़ज़ल"




                                                             'जिंदगी एक कहानी'  "ग़ज़ल"



  जिंदगी एक कहानी ,बनकर गुज़री
बनकर कई रास्ते ,धुंधले नज़र आते थें।

कब तलक मंज़िलें पाऊँगा बता दे मुझको
पांव दुखने लगें हैं मेरे ,चलते -चलते।

टूटता पुल मुझे दिखने लगा है ,ख़्वाबों का
ख़ामी कुछ रेत में थी ,मालिक़ ने जिसे बख़्शा था।

कई मोड़ आये थे ज़िंदगी के चौराहों पे
मसला ये था चुनू किस राह को मंज़िल तक पहुँचने में।

कहने को हर रास्ते ख़त्म होते थे किसी न किसी मंज़िल को
दिल से एक सदा आती थी हरपल ,तूँ सोचता बहुत है ,चलने से पहले।

दिल को बार -बार लगता था ,मंज़िल मिल ही जाएगी एक दिन
फ़िर भी क़दम चलते थे मेरे ,कुछ ठिठक -ठिठक कर।

पा गया हूँ मंज़िल आज़, मीलों चलने के बाद
ना जाने क़दम यूँ मेरे ,फ़िर से पीछे हटते हैं।

इल्म हुआ मुझको अब ,लाखों सपनें देखने के बाद
कमीं  थी मुझमें कहीं ,अधूरी ख़्वाहिशें संजोनें के बाद।



                       "एकलव्य "  
                                     

"बंजारों सा"


                                       


                                                                "बंजारों सा"


राह चला था ,मंजिल को मैं
कोई न ऐसी राह दिखे
जिन राहों पे होकर गुजरा
उन पगडण्डी अब घास उगे,

कहीं हैं कांटे ,कहीं हैं कंकड़
राह कठिन है ,मन में हलचल
लहरें उठतीं ,मन के समंदर
आतीं डुबोने ,मुझको हरपल ,

मैं भी पागल बढ़ता जाऊँ
होश न मुझको बेचैनी हरपल
चट्टानों से लगे है ठोकर
पैरों से माथे पर होकर ,

एक पल लगे संभल जाऊँगा
पैरों तले फ़िसल जाऊँगा
लालच ऐसी मन को घेरे
बंजारों सा डाले डेरे ,

चाहूँ निकलना ,इस घेरे से
अपने -परायों के फेरे से
चक्कर ऐसा जान न पाऊँ
अपने को ही फसता पाऊँ ,

इच्छा ऐसी फिरता जाऊँ
मकड़जाल से निकल न पाऊँ
जीवनभर मैं बस पछताऊँ।।


                                 "एकलव्य "

                                                         


छाया चित्र स्रोत:https://pixabay.com

"बीता बचपन फिर बुलायें" (गीत )


                                 

                                                  "बीता बचपन फिर बुलायें" (गीत )
"प्यारा बचपन"  




आँखों में आये हो बनके
एक नई दुनियां समेटे
रात को आये जो सपने
रेशमी चुनरी लपेटे
दिखते मुझको ख़्वाब सुन्दर
बह चला आँखों का दरिया
गिर गए अरमान सारे,
धुंधली सी छाई है बदली
छुप गयी हर चाँद उजली
मन में सोया बाल जगता
हर घड़ी मुझसे ये कहता
लौट आ बचपन की दुनिया ,
फिर वही झूले पड़े हों
पेड़ की टहनी लगे हो ,
माँ जो लोरी फिर सुनाए
अपने आँचल से लगाए ,
दूध की रोटी खिलाये
बाँह के झूले- झुलाए
परियों की कहानी सुनाये ,
कागजों की कस्ती बनायें
नालें में जिनकों बहायें ,
पेड़ों की छाओं में बैठें
बन कन्हैया मुरली बजायें,
लोगों के माखन चुरायें ,
थाम के बाँह ,नाचे -गायें
फिर वही खुशियाँ मनायें
बीता बचपन फिर बुलायें।।


                      "एकलव्य "
 "मेरी रचनायें मेरे अंदर मचे अंतर्द्वंद का परिणाम हैं"
 

                         



शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2017

"जीवन भर बस यूँ ललचाये "




                                                 "जीवन भर बस यूँ ललचाये "



  आँखों से गिरता पानी
  कहती तुझसे मेरी कहानी
  कुछ पूरी है ,कुछ है आधी
  कहती बनकर ,काजल काली

 कुछ थे   सपने मेरे अपने ,बाक़ी सब थे ख़्वाब पराये
 कहीं डाल पर  मन ये बैठा ,बन्दर जैसा कांपे जाये।

कभी देखकर झूठे सपने
मन मेरा मुझको तरसाये,

फुदक -फुदक कर ,देखके उनको
वहीं डाल पर झूले जाये।

डाली की परवाह किसे है ,सपनों में ही गोते खाये
कोमल पकड़ जो छूटे हाथ से ,मुँह के बल वो ख़ुद गिर जाये।

दिल भी कुछ है मकड़ी जैसा
बुनें जाल और खुद फँस जाये
फंसे जो ऐसे मायाजाल में
जब तक प्राण निकल न जाये।

दुनियां के इस चका -चौंध में
अपने को ही खोता जाये ,
सोचे ये तो पा जाऊँगा 
कुछ भी हाथ न इसके आये 
जीवनभर बस यूँ ललचाये।

"एकलव्य "

प्रकाशित : एस जी पी जी आई न्यूज लेटर
         

छाया चित्र स्रोत: https://pixabay.com