ज़िंदगी भर फ़िरता रहा जिस मोहब्बत की तलाश में भँवरे की तरह
वो मिली है आज़ मुझे ,अपने क़ब्र में आकर ,
रोता था मैं उन क़ब्रो देखकर बेकार में
आज़ लगता है ,कितनी प्यारी है ये दुनिया
मुर्दों के जहाँ की ,इस जश्न्न में आकर ,
क़ब्रिस्तान के इस सुनसान गलियों में गुफ़्तगू करतीं हैं ,दो क़ब्रे इस तरह
अल्लाह की नुमाइंदगी करते, उनके नेक़ बंदे जिस तरह ,
हम दिल ही दिल में बातें करते हैं ,ज़ुबाँ की क्या ज़रूरत
हम रूह की हक़ीक़त समझते हैं ,ज़िस्म की क्या ज़रूरत ,
रोते नहीं हम एक पल भी कभी ,कमबख़्त ! ये रोने वाले काफ़िर
खामोख़ाह चले आते हैं हमारी क़ब्रों पर ,भँवरे की तरह
जिन्हें देखकर बस यही ख़्याल आता है ,कितने बेवकूफ हैं
ये काफ़िर इस दोज़ख में आकर ,भँवरे की तरह ,
मन ही मन हम कहते हैं ,अरे काफ़िरों हमें सोने तो दो !
इस क़ब्र में ,चैन से खोने तो दो !
शर्म नहीं आती ,किसी ग़ैर की नींद हराम करते हो
ख़ुद तो नींद आती नहीं ,हमें अपने ज़ख्मों से परेशां करते हो,
ज़िंदगी भर फ़िरता रहा जिस मोहब्बत की तलाश में भँवरे की तरह
वो मिली है आज़ मुझे ,अपने क़ब्र में आकर..........
"एकलव्य "
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