रविवार, 19 फ़रवरी 2017

"फ़िर से" (ग़ज़ल )



                                                                    "फ़िर से"  (ग़ज़ल )



डरता हूँ क़दम रखने से ,फूलों पर फ़िर से
देते हैं चुभन ये फूल ,चैन मिलता है पावों को काँटों पर फ़िर से ,

छाले पड़े थे इन राहों पर चलने से
तलाशता हूँ एक छाँव भरी मंज़िल फ़िर से ,

संजोए थे कई ख़्वाब ,नीले आसमां को देखकर
उड़ने से नहीं ,गिरने से डर लगता है जमीं पर फ़िर से ,

ख़्वाब तो कई थे ,पूरे करने को जिंदगी में
अधूरे न रह जाए ख़्वाब ,पूरे होने से पहले फ़िर से ,

कुछ आंधियाँ चलती थीं ,जीवन के वीरानों में
ख़लिश ये नहीं मैं गिर जाऊँगा ,मसला है अकेला हो जाऊँगा फ़िर से ,

बचपन था जब खेल -खेल में रो लिया करता था ,कुछ पल
रो तो लूं ,आज भी थोड़ी देर ,हँसेगी दुनियां पागल जानकर फ़िर से ,

परवाज़ का दस्तूर है ,आसमां में उड़ना केवल
दुनियां का दस्तूर है ,गिरने वालों को देखकर हँसना फ़िर से ,

उड़ तो मैं भी जाऊँ ,हौंसले साथ दे ग़र
बन जाऊँ आवारा परिंदा ,पँखों को फैलाकर फ़िर से ,

दगा तो दे दूँ ,उस शिकारी को मैं भी ,
सपने ही कुछ रंगीन हैं ,आप ही उलझा जाता हूँ फ़िर से.........



                            "एकलव्य " 
            
                         






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