सोमवार, 20 फ़रवरी 2017

"देश चरित्र" (काव्य खण्ड)



                                                                       

                                                                      "देश चरित्र" (काव्य खण्ड) 



कभी गूँजती गलियां जिनकी भारत के जयकारों से
ग़ुम है जिनकी आज बोलियाँ ,पत्थर की दीवारों में ,

वो समय था एक दिन ,सोचा करता आजादी के नारों को
एक समय है आया मेरे सम्मुख, बस पेट की क्षुधा मिटाने को ,

चिल्लाते थे देश हमारा ,अब तो तुम आजाद करो
नही है डंडा ,नही है लाठी ,देश हमें सौग़ात करो ,

तन पे कपड़े न पेट में रोटी
सर पे कफ़न बस इच्छा छोटी
हिंदू -मुस्लिम ना भेद था कोई
जाति -पाती दीवार ना कोई
देश प्रेम की इच्छा बोई ,

छोटा था पर हिंदुस्तानी
ढेरों मज़हब ,एक ज़ुबानी
दिल में था ,आजादी का जज़्बा
हाथ न पैसा ,कोई ना रुतबा ,

हरदम दिखती ,मंज़िल हमको
बस आजादी की राहों में
याद नहीं हम कब सोये थे
लंबी -लंबी रातों में
भरसक कोशिश रहती अपनी
एक नया सवेरा लाने को ,

घर में मेरी माँ सोचती ,कब आयेगा लाल मेरा
जन्म दिया है मैंने जिसको ,सूना आँगन आज पड़ा ,

याद हैं पेड़ों की डालियां ,जिससे लगकर झूला था
सोंधी -सोंधीं  महक़ धरती की ,जिसको बचपन चुमा था ,

तेज़ आँधियां मुझे बुलायें ,पल-पल अपने वेगों से
रह -रह कर कुछ याद दिलायें ,सूखे अपने करतल से ,

तज़कर जिनको कूद पड़ा मैं ,आजादी के मैदानों में
भूल गया मैं अपने आप को ,शुमार हुआ परवानों में ,

याद है बीते कल के किस्से ,गली -गली हम फिरते थे
भारतमाता जयघोष के नारे ,अम्बर गूंजा करते थे ,

क्या बूढ़ा क्या बच्चा था
किन्तु देश भक्त वो सच्चा था ,

छोटी सी एक इच्छा थी ,स्वराज हमारा होगा एक दिन
ना दौलत ,ना शोहरत चाहिये ,राज हमारा होगा एक दिन ,

कहते उसको क़िस्मत वाला ,जो फाँसी पर झूला था
हर शहीद था वो मतवाला ,इस धरती को चूमा था ,

कुछ ब्याहे थे और अनब्याहे
कुछ ने घुँघट  खोला था
कुछ घुँघट भी खोल न पाये
आजादी को दुल्हन माना था ,

खुद का आँगन किया ना रौशन
अँधियारा घर में पसरा
बस सीनों में आग लगी थी
आजादी के दीये जलाने को ,

क्या उत्तर ,क्या दक्षिण सीमा
हर जगह देश का नारा था
क्या नारी ,क्या नर हो देश का
बस आजादी ,पैग़ाम हमारा था ,

रंगों में बहता पिघला लोहा
बन गया ,संकल्प हमारा था
ऊँच -नीच का अंतर भूला
इंसान बन गया नारा था ,

लाखों झूले ,फाँसी के फँदे पे
साहस जिनका साथी था
एक पल को ,वो डरा नहीं था
मौंत को मंज़िल माना था ,

एक बच्चा गलियों में दौड़ा ,लेकर झंडा प्यारा था
सौ कोड़े थे उसने खाए ,नंगी पीठ गंवारा था ,

जलिया वाला वो दिन भी याद है
मेला था मैदानों में
जनरल ने फ़ायर करवाया
हज़ारों निहत्थे अरमानों पे ,

कुछ भागे ,कुछ भाग न पाए
उन गोलों की आँधी में
कुछ ने अपने बच्चे खोए
कुछ खोने को आतुर थे ,

हमने खेली ख़ून की होली ,रंगों का कहीं पता न था
खेत वीरान पड़े थे अपने ,मौसम तो कुछ जुदा सा था ,

लाखों शहीदों की क़ुर्बानी
बन के आई आजादी बेईमानी
कहने को देश स्वतंत्र हुआ
पर अपनों ने ही परतंत्र किया ,

देश था एक दिन ,एक हमारा
अपनों ने तक्सीन किया
एक हिंदुस्तान बना था प्यारा
दुजा पाक़िस्तान हुआ ,

मैं हूँ हिंदू , हूँ मैं मुस्लिम
नारा यही लगाते थे
लहू के रंग में भेद न कोई
नदियां जहाँ बहाते थे ,

भर -भर लाशें रेले चलती
बाघा के जिस सीमा में
मानव जीवन का न कोई मूल्य था
धर्म मूल्य था ,पैग़ामों में ,

सोचा था आयेगी आजादी
 लेकर सपने कुछ प्यारे से
सर्वश्व हमने बलिदान किया था
जिसकी आन की राहों में ,

बस राम -रहीम आवाज़ बुलंद थी
देश के कोने -कोने में
असली मक़सद भूल गये हम
आजादी के मतवालों के ,

आजादी की सुबह न देखी ,वो शख़्स हमेशा खेत रहे
अंग्रेजों के पिठठू थे जो ,आज देश के लाल बने ,

वही तिरंगा नाम है जिसका
उन मतवालों ने रंग भरे
चमक न जिसकी ,धूमिल हो जाये
मरते -मरते भी हाथ उठे ,

मेरा रंग दे बसंती चोला ,कहकर जिन्होंने प्राण दिये
कोई स्वार्थ था, ना कोई लालच जिनकी
बस आजादी के श्वास भरे ,

आज देश में नारे लगते ,ना आजादी को लाने को
स्वार्थ निहित है ,दिल है छोटा ,बस अपनी क्षुधा मिटाने को ,

कोई कहता है देश हमारा ,कहता कोई देश पराया
कहता कोई गोली मारो ,जो कहता है देश हमारा ,

आज के देशभक्तों की ,देशभक्ति निराली
करे देशभक्ति बस सत्ता पाने की ,

माटी से ना कोई मतलब
मर गया ,आँखों का पानी
हैं केवल ये दंगे कराते
भाई को भाई से लड़ाते
बनकर लोमड़ लाभ उठाते
वसुधैव कुटुम्बकम का राग झुठलाते ,

कभी -कभी ये शोर मचाते ,संसद की दीवारों में
बांटो फिर से देश हमारा ,छोटे -छोटे भागों में ,

देश का झंडा ,गुम सा लगता
झंडो के इस मेले में
बलिदानों का रंग दिया था जिसको
आजादी के मतवालों ने ,

देश की याद किसे है आती
टी वी पर चलते खेलों से
कुछ पल को ये देश हमारा
फिर अपना घर ,देश है प्यारा ,

आज भी हमको छाया दिखती
उन आजादी के मतवालों की
खड़ा किया है हमने जिनकों
बर्फ़ों की उन सीमा पे ,

मसला है ये, कौन है दुश्मन
किसको मार गिराऊँ मैं
सब नक़ाब ओढ़े हैं बैठे
अब किसको झुठलाऊँ मैं .......

    "एकलव्य "
          
                       






            







कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें