मंगलवार, 21 फ़रवरी 2017

"प्यासा ही ख़ुश हूँ" ( कविता )



                                                            "प्यासा ही ख़ुश हूँ" ( कविता )                                  



आँखों में छायी बदली की घनघोर घटा
कुछ हैं काले ,श्वेत हैं कुछ ,कुछ आशाओं की छटां 
कुछ बरसाते ग़म की बारिश और कुछ में आनंद बसा 
गिरते हैं कुछ मोती बनकर ,बनते हैं जीवन की सदा ,


भर देते आशाओं का दरिया 
बनकर जीवन की लड़ियाँ 
प्यास बुझाये सबके मन का 
कुछ पाते परमानन्द सदा ,


कुछ खग चिंत्तित्त ,बैठे हैं डाल पर 
प्यासे हैं ,धैर्य धरे अपने हाल पर
उनको दिखता ,चाल है कोई
बिना स्वार्थ ना दुनियां रोई ,


प्यास बुझाने क्या मैं जाऊँ ?
कहीं जाल में ना फँस जाऊँ ?
दुःख का दरिया ,हो तो निकल भी जाऊँ
प्रेम के दरिया में फँस जाऊँ ,

अस्तित्व जो मेरा ना मिट जाए
पड़ के पानी के चक्कर में
भली आश है ,जगी जो मेरे
सुंदर से कोरे मन में ,

प्यासा ही ख़ुश हूँ ,प्यास बुझाने को मैं
इस मायावी संसार में
दूर हूँ ,झूठे दुनियां के रस्मों से
बाक़ी सब बेक़ार हैं,


            "एकलव्य "       
                                                 







कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें