आज फ़िर वही अधूरी शाम
अल्लाह का एहतराम
प्याले में जाम
मुँह में ख़ुदा का नाम,
तन पर मैले कपड़े
उन पर जमी पुरानी धूल
बन गयी पपड़ी उनकी यादों की ,
बैठा रहता हूँ कुछ सोचता हुआ
ख़्यालों की कस्ती खेता हुआ
अधमरा सा लेटा हुआ
बीती यादें समेटा हुआ ,
लम्हें जो काटने को दौड़तीं थीं
मुस्कुराकर उन्हें लपेटा हुआ ,
ग़ुलज़ार तो आज़ भी है
सुना है दिल का कोना अभी
आवाज़ तो होती है खंडहर में
घोड़ों के टापों की ,
कुचला जिन्हें ,उन्होनें
अपने शोहरतें परस्ती से
हम तो फूल बिछाया करते थे
उनकी जन्नते राहों में ,
इल्म न था कुचल देंगें अपनी मौक़ा परस्ती से
एक चीख़ निकली थी कभी मेरी भी, वीरानों में ,
जमींदोह कर दिया कुछ ग़ुलामों ने मुझे
आवाज़ गूँजने से पहले ,मेरे ही आशियानों में ,
एक चीख़ अब भी निकलती है ,क़ब्रिस्तानों में
फ़र्क सिर्फ़ इतना है, सुनते हैं सभी मेरी फ़रमाईश
ख़ुद एक फ़रमाईश बनके। ........
"एकलव्य"
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