शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2017

"जीवन भर बस यूँ ललचाये "




                                                 "जीवन भर बस यूँ ललचाये "



  आँखों से गिरता पानी
  कहती तुझसे मेरी कहानी
  कुछ पूरी है ,कुछ है आधी
  कहती बनकर ,काजल काली

 कुछ थे   सपने मेरे अपने ,बाक़ी सब थे ख़्वाब पराये
 कहीं डाल पर  मन ये बैठा ,बन्दर जैसा कांपे जाये।

कभी देखकर झूठे सपने
मन मेरा मुझको तरसाये,

फुदक -फुदक कर ,देखके उनको
वहीं डाल पर झूले जाये।

डाली की परवाह किसे है ,सपनों में ही गोते खाये
कोमल पकड़ जो छूटे हाथ से ,मुँह के बल वो ख़ुद गिर जाये।

दिल भी कुछ है मकड़ी जैसा
बुनें जाल और खुद फँस जाये
फंसे जो ऐसे मायाजाल में
जब तक प्राण निकल न जाये।

दुनियां के इस चका -चौंध में
अपने को ही खोता जाये ,
सोचे ये तो पा जाऊँगा 
कुछ भी हाथ न इसके आये 
जीवनभर बस यूँ ललचाये।

"एकलव्य "

प्रकाशित : एस जी पी जी आई न्यूज लेटर
         

छाया चित्र स्रोत: https://pixabay.com


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें